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३१६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास को निद्द और दुर्ग को दुग्ग लिखने की प्रवृत्ति परम्परा पालन के आग्रहवश ही होता रहा । इन थोड़े अपवादों को छोड़कर भाषा स्वाभाविक गति से सरलीकारण के रास्ते तेजी से चल पड़ी थी। इस समय बोलचाल की लोक भाषाओं में साहित्य लिखने का शुभारम्भ सर्वत्र दिखाई पड़ता है। मुसलमान कवि अमीर खुसरों ने दिल्ली की बोलचाल भी भाषा खड़ी बोली
और तत्कालीन प्रचलित काव्य भाषा व्रज में साहित्य लिखकर इस मत की पुष्टि की है। पूर्वोत्तर भारत में स्वामी रामानन्द और सन्त कबीर, रैदास आदि, पंजाब में गुरुनानक, दक्षिण में ज्ञानदेव और नामदेव तथा बंगाल में चैतन्यदेव और विहार में विद्यापति, गुजरात में लोकाशाह तथा बुन्देलखण्ड में तारणस्वामी आदि संतों और साहित्यकारों ने लोकभाषा में अपना साहित्य लिखकर सामान्य जनता को उद्बोधित किया।
जैन कवियों ने भी सामान्य जनता की मिली-जुली भाषा शैली में सर्व सुलभ साहित्य का सृजन किया। उन्होंने कहावतों और मुहावरों को अपनी कविता में यथास्थान रखकर भाषा रूपी अंगूठी में मानों नगीना जड़ दिया। कुछ उदाहरण देखिये 'ह्न है मन चंग तो कठौती में गंग है।' या 'बाँध मूठी आयो है पसारे हाथ जायबो।' अथवा 'लिख्या मिटइं नहि लेष', थकि गिलइ नहि कोई' इत्यादि प्रयोग समयसुन्दर, किसनदास, ज्ञानानन्द आदि समर्थ कवियों की भाषा में सहज ही उपलब्ध हैं । प्रसाद गुण के साथ इनकी भाषा में रागात्मिका शक्ति की बहुलता है । भाषा को सजानेसँवारने में इनकी पटुता उल्लेखनीय है । नाद सौन्दर्य के साथ तुक, यति, गति और लय का सुखद संयोजन इनके काव्य भाषा की सामान्य विशेषतायें हैं । धर्मवर्द्धन की दो पंक्तियाँ अपने कथन के समर्थन में प्रस्तुत कर रहा हूँ'धरत धरम मग, हरत दुरित रंग, करत सुकृत मति हरत मरम सी। गहत अमल गुन, दहत मदन बन, रहत नगन तन सहत गरम सी।1
ऐसा लगता है कि तत्कालीन हिन्दी के अनेक कवियों की काव्य भाषा से यह भाषा अधिक गतिमान, गेय और मधुर है। हिन्दी के इतिहास ग्रन्थों में इस प्रकार के कवियों का उल्लेख अपेक्षित है।
छंद विधान-भाषा को स्वाभाविक लय-प्रवाह के लिए छन्द विधान का भी महत्व होता है । मरुगुर्जर जैन काव्य में वर्णिक एवं मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग मिलता है किन्तु प्रधानता मात्रिक छंदों की है। १. धर्मवद्धन ग्रन्थावली सं० अगरचन्द नाहटा पृ० २
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