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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
मनडानी बातो जो ज्यों रे, जु जुई धातो रंग विरंगी रे,
मनहुँ रंग विरंगी ।"
इसी प्रकार कुछ कवियों की भाषा पर व्रजभाषा का प्रभाव भी प्रकट होता है विशेषतया गेय पदों में यह अधिक लक्षित होता है ।
भाषा सम्बन्धी सामान्य विशेषतायें - इसी समय से भाषा का सरली - करण प्रारम्भ हुआ । इसके लिए कुछ निश्चित उपाय भी किये गये । जैन रचनाओं में 'श' और 'स' का प्रयोग बिना विशेष नियम के होने लगा । 'स' का प्रयोग प्रायः सर्वत्र किया जाने लगा जैसे सोभा, दरसन और सुजस आदि । आगम और लोप की प्रवृत्ति, संयुक्त वर्णों को स्वरविभक्तियों द्वारा पृथक् करने की प्रवृत्ति, संयुक्त वर्णों में से केवल एक वर्ण को हटाकर कर्णकटु द्वित्त के स्थान पर सरल एवं श्रुतिमधुर शब्द गढ़ने की प्रवृत्ति इस काल की मरुगुर्जर भाषा की सामान्य विशेषतायें हैं । इनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं । सर्वप्रथम संयुक्त वर्णों को स्वर - विभक्तियों द्वारा पृथक् करके आत्मा का आतम, शब्द का सबद, प्रत्यक्ष का परतछ, स्मरण का सुमरण जैसे शब्दों का प्रचलन द्रष्टव्य है । इसी प्रकार एक वर्ण हटाकर ऋद्धि को रिधि, स्थान को थान, स्पर्श को परस आदि लिखा जाना उल्लेखनीय है ।
इस काल की भाषा पर राजस्थानी - गुजराती के अलावा व्रजभाषा, खड़ी बोली और कुछ कुछ उर्दू फारसी के प्रयोगों का सम्मिलित प्रभाव भी दर्शनीय है । कहीं कहीं 'रे' तथा 'डा-डी' के प्रयोग स्वरूप अपभ्रंश का अवशिष्ट प्रभाव भी दिखाई पड़ जाता है ।
जैसे 'आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे ।
जोवइ जोवइ प्रीयडा बार सकोमल कामिनि रे ।' इत्यादि
अनुस्वारों का मोह भी दिखाई पड़ता है, यथा'नरेन्द्र फणीन्द्र, सुरेन्द्र अदीशं शतेन्दुं सुपूजै भर्जनाय शीशं ।
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इस काल तक स्वतन्त्र क्रियाओं का विकास विशेषतया खड़ी बोली हिन्दी और राजस्थानी में हो गया था । विभक्तियों का प्रयोग स्पष्ट रूप से होने लगा था । प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से आधुनिक देश्य भाषाओं तक कुछ प्रवृत्तियाँ परम्परानुसार चली आई जैसे 'डा' रे' आदि की चर्चा ऊपर की जा चुकी है । इसी प्रकार कर्म को कम्म, विद्या को विज्जा, निद्रा १. आनंदवर्द्धन भजन संग्रह धर्मामृत पृ० ७३
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