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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ भाषा सम्बन्धी इस समानता के कारण कुछ कठिनाई भी उपस्थित होती है विशेषतया जब किसी रचना में उसका रचनास्थान और अन्य विवरण कवि नहीं देता । इस उभयनिष्ठ भाषा के कारण यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि रचना किस प्रदेश में लिखी गई है । भाषा के आधार पर वे राजस्थान और गुजरात की समान रूप से मालूम पड़ती हैं, अतः राजस्थानी और गुजराती जैन साहित्य को सर्वथा विभक्त करके प्रस्तुत करना १६वीं शताब्दी में भी सम्भव नहीं है। जिस प्रकार राजस्थानी और गुजराती में काफी समानता मिलती है उसी प्रकार हिन्दी और राजस्थानी में भी काफी सादृश्य या। राजस्थान के जयपुर, बागड़प्रदेश हिन्दीभाषी प्रदेश से मिले जुले हैं। इन स्थानों में तथा गजरात में दिगम्बर भट्रारकों की गादियाँ थीं। इन लोगों ने जो रचनायें की उसमें हिन्दी का प्रयोग स्वभावतः अधिक हुआ किन्तु इन्हें आसानी से मरुगर्जर के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है। श्वेताम्बर साधु और लेखक भी अपनी भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण प्रायः राजस्थान, गुजरात, विहार और उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते रहते थे, अतः इनकी रचनाओं की भाषा में इन स्थानों की भाषा-बोली स्वभावतः मिल जुल गई है। ऐसी मिली-जुली भाषा का सर्वाधिक उपयुक्त नाम मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी ही है। ऐसी रचनाओं के प्रभूत उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। राजस्थानी और हिन्दी मिश्रित मरुगर्जर भाषा शैली का नमूना महाकवि जिनहर्ष की इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है :
'सभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी। तिण अवसर आवीयउ, एक मागध परदेसी। कर जोड़ि एक जंपइ वयण, हुकुम रावलो जो लहुँ। जिनहर्ष सुणण जोगी कथा कोतिगवाली हूँ कहुँ ।
(चौबोली कथा) इसी प्रकार हिन्दी गुजराती मिश्रित भाषा शैली का नमूना कवि वीरचन्द्र के वीर विलास फाग से आगे प्रस्तुत है :
'कनकमि कंकण मोड़ती, तोड़ती मिणिमिहार ।
लूचंती केश कलाप, विलाप करि अनिवार । अथवा 'परमेसर सुप्रीतडी रे किम कीजे करतार,
प्रीत करंता रोहिली रे, मन न रहे खिण एकतार रे । १. श्री अ० च० नाहटा--'राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल परम्परा पृ० ६७ २. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत प० १०९
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