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________________ अध्याय : ५ मरु गुर्जर जैन साहित्य का इतिहास वि० सं० १५०१ से वि० सं० १६०० तक (मध्य युग का प्रारम्भ ) - विक्रम की १६वीं शताब्दी के साथ हम मरुगुर्जर जैन साहित्य के मध्ययुग में प्रवेश करते हैं। मध्ययुग समग्र आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य का स्वर्णयुग है । मरुगुर्जर साहित्यका मध्ययुगभी अत्यन्त सम्पन्न है। हम चाहें तो इसे मरुगुर्जर का स्वर्णयुग कह सकते हैं । प्रायः सभी विद्वान् इस मत से सहमत हैं कि १६वीं शताब्दी से मरुगुर्जर जैन साहित्य में एक नया मोड़ आता है और मध्ययुग का प्रारम्भ होता है जो विक्रम की १९वीं शताब्दी तक चलता है। मध्ययुगीन मरुगुर्जर जैन साहित्य की सामान्य विशेषतायें : ६५वीं शताब्दी तक अपभ्रंश से जनभाषाओं का अपने-अपने प्रदेश में विकास प्रायः पूरा हो चुका था लेकिन जैन विद्वानों की कुछ रचनाओं में अब भी अपभ्रंश की झलक दिखाई पड़ती है । १६वीं शताब्दी तक आतेआते राजस्थानी और गुजराती भाषाओं का स्वतन्त्र विकास परिलक्षित होने लगता है लेकिन जैन रचनाओं की भाषा में मरु और गुर्जर का प्रभाव समान रूप से बना रहा । इसका मुख्य कारण शायद यह था कि इन दोनों प्रान्तों की सीमायें ही नहीं बल्कि अधिकतर गच्छवाल कवियों और साधुओं का सम्बन्ध इन दोनों प्रान्तों से बहुत घनिष्ठ रहा । साधु-साध्वी इन दोनों ही प्रान्तों में समान रूप से निरन्तर विहार करते थे और एक मिली. जुली भाषा का प्रयोग करते थे जिसे दोनों प्रान्तों की सामान्य जनता आसानी से समझ सके । अतः श्वेताम्बर लेखकों की रचना का माध्यम मध्ययुग में भी मरुगर्जर ही रही। दिगम्बर लेखकों की भाषा पर पुरानी हिन्दी का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है किन्तु उनकी रचनायें कम उपलब्ध हैं। अतः जैन साहित्य का अधिकांश भाग मरुगुर्जर भाषा का साहित्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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