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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पत्नी देवल दे के चार पुत्रों में से एक थे । इनका जन्म सं० १४४९ में हुआ था। इनके बचपन का नाम देल्हा था। इनकी सं० १४६३ में दीक्षा और १४९७ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठा हुई । प्रस्तुत फागु यदि आपके आचार्य पद स्थापना महोत्सव के अवसर पर लिखा गया होगा तो निश्चय ही १५वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में लिखा गया होगा। आ० कीतिरत्न की मृत्यु सं० १५२५ में हुई किन्तु वर्णनों को देखकर यही सम्भावना है कि यह इनके पाटोत्सव पर लिखा गया है। अतः १५वीं शताब्दी की रचना है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां प्रस्तुत है :
'खिणि वाजिंत्र धुमधुमइए, गयणांगण गाजइ ।
छल छल छयल कंसाल ताल महुरा रवि वाजइ । प्रति खंडित है अतः प्रारम्भ २८वें छन्द से हुआ है और अन्त ३६वें छन्द पर होता है; अन्तिम छन्द इस प्रकार है :
'ए रिस सुहगुरु तणउ नाम नितु मनिहि धरीजइ । तिमि तिमि नवनिहि सयल सिद्धि बहु बुद्धि लहीजइ । ए फागु उछरंगि रमइ जे मास वसंते,
तिहि मणिनाह पहाण कित्ति महियल पसरन्ते ।३६। इसके साथ श्री कीर्तिरत्नसूरि पर कई गीत इस संग्रह में प्रकाशित हैं, जैसे साधुकीर्ति कृत श्री कीर्तिरत्नसूरि गीतम् जो साधुरत्न के साथ दिया जा चुका है । ललितकीर्ति, सुमति रंग, जयकीर्ति कृत गीत १६वीं शताब्दी की रचनायें हैं अतः उन्हें यथास्थान दिया जायेगा।
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