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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३०७ उसे भी भोगों से विरक्ति हुई और त्याग तथा संयम पर्वक उसने सिद्धि प्राप्त की। फाग के प्रारम्भ में वंदना करता हआ कवि लिखता है :'वंदवि नाभि नरिंद सुय रिसहेसर जिणचंदो,
गाइसु मास वसंत हुइ भरहेसर नरविंदो।। इसके बाद भरत की राजधानी अयोध्या का वैभव तथा अन्तःपुर की रमणियों की वसंत क्रीड़ा का वर्णन किया गया है। प्रथम भास में प्राचीन छन्दवन्ध अर्थात् दोहा और रोला छंद में अयोध्या की शोभा का वर्णन किया गया है, यथा :--
'हम गय चुलसी लक्ख जक्ख खेचर जस किंकर,
हास कास संकास जास जसु गाई किन्नर ।' वसंत वर्णन का एक उदाहरण प्रस्तुत है :
'फूलिय सब वणराय वाय वायंती लहकइ,
चंपउ चंपइ अवर सीम निय परिमल वहकइ । इस वर्णन में सैकड़ों पुष्पों की सूची गिनाई गई है। १३वीं कड़ी से नया भास प्रारम्भ होता है और वसंत की वन-शोभा का वर्णन चलता रहता है, यथा
ए रसु बनसिरि अवपरियउ रलियामणउ वसंतो,
पेक्खिवि विलसइ चक्कवय नव नव परि पुनवंतो।' चक्रवर्ती भरत द्वारा नियमपूर्वक जिनधर्म-पालन का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :--
'अवसरि सो सवि सुद्ध बुद्धि जिणधम्म करेई, अवसरि खडो खलिय मज्झि जलकेलि करे।। अवसरि पंच पयार भोगवइ मणोहर,
अवसर समरइ भावि देवगुरु पाप तमोहर । इस प्रकार नियमपूर्वक जीवन यापन करते हुए एक दिन शीशे में अपना रूप देखकर उसे वैराग्य हो गया और तपस्यापूर्वक वह केवलज्ञानी हुआ। __यद्यपि फाग के सम्बन्ध में विवरण नहीं प्राप्त है किन्तु फाग में कविता का पूर्ण आनन्द और उसके माध्यम से जैनधर्म का संदेश प्रभाव. कारी ढंग से उपलब्ध है। १. प्राचीन फाग संग्रह पृ० ४७ से ४९ २. श्री मो० द० देसाई जैन गु० कवि भाग ३ पृ० ४२१
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