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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अज्ञात कवि कृत 'पृथ्वीचन्द्र गुणसागर रास' भी १५वीं शताब्दी की अच्छी रचना है जिसमें सुविनीता नगरी के राजा अरिसिंह और रानी पद्मावती के कुमार पृथ्वीचन्द्र का चरित्र चित्रित है। रास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
'सिरि नेमि जिणेसर नमिय सुरेसर सार,
मुनि गायसु गिरुआ सीलरयण भंडार । पृथ्वीचन्द्र भी अन्य जैन कथानायकों की तरह सब प्रकार के सुख भोग के पश्चात् संयम धारण करके मुक्ति प्राप्त करता है। रास की अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं :
'पार लहीनइ पुहता शिवपुरि तेह जिहु आराधउं, माणसि भव तणउ अमूलिक आज अम्हें फल लाधउं ।५१। साधउं काज हवउ जगि सारउ तारउं अप्पा काज । प्रणमउं पृथ्वीचन्द केवली, गुणसागर रिखराज ।५२।' गुणसमुद्र सूरि शिष्य-(नागिल गच्छ के अज्ञात कवि) आपने १५वीं शताब्दी में 'शकुन चौपइ' नामक एक विस्तृत पद्यबद्ध रचना शकुन शास्त्र पर लिखी । इसकी छन्द संख्या ५७२ है । नागेन्द्र या नागिल गच्छीय गुणसमुद्रसूरि का प्रतिमालेख सं० १४९२ का प्राप्त होने से यह निश्चय होता है कि प्रस्तुत रचना १५वीं शताब्दी की ही है। इस रचना से यह भलीभाँति प्रमाणित होता है कि जैनकवि पद्यों में ऋषि-मुनि-चरित्र, व्रततीर्थ, जिनबिम्ब आदि धार्मिक विषयों का वर्णन करने के साथ ही ज्योतिष, शकुन, नीति आदि विविध अन्यान्य विषयों पर भी रचना करने में कुशल थे। इसकी अन्तिम पंक्तियां भाषा और शैली के नमूने के रूप में आगे उद्धत की जा रही है :
'देवह गुरु संघह सानधि, शकुन शास्त्रनी विरची बुद्धि, नागिल गच्छि गिरुआ गुणवंत, श्री गुणसमुद्र सूरि गुरु जयवंत । तास सीस लहइ बुद्धि विचारा, भणइ गुणि निसुणइ जे केऊ ।
आगमि निर्गमि बूझइ तेऊ।' अज्ञात कवि कृत अकादश गणधर नमस्कार (११ कड़ी) तथा एकादश गणधर स्तवन नामक रचनाओं की भाषा के नमूने के लिए दोनों से कुछ पक्तियां उद्ध त की जा रही हैं :१. श्री मो० द० देसाई जै० गु० कवि भाग ३ पृ० ४३७ २. वही
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