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३०६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कवि पाटोत्सव का वर्णन करता हुआ लिखता है :
'नाचई ए नयणविसाल चंदवयणि मन रंगभरे ।
नवरंगि ए रासरमंति खेलखेलिय सुपरिवरे ।२०। पाट पर सुशोभित आचार्य की छवि का अंकन कवि ने इन शब्दों में किया है :
'जिम माणस सरि हंसु भाद्रव घणु दाणेसरहु, जिम गह मंडलि हंसु चांदु जेम तारागण हु। जिम अमराउरि इन्द्र भूमंडलि जिम चक्कधरो।
संघह महि मुणिंदु तिम सोहइ जिण उदय गुरो।' इसमें उपमा अलंकार से मंटित मधुर भाषा का स्वरूप दर्शनीय है । कवि रास के अन्त में लिखता हैं :
'सुहगुरु गुण गायंत सयल लोय वंछिय लहए।
रमउ रासु इदुरंगि ज्ञानकलश मुनि इम कहइ ।' रास का मंगलाचरण करते हुए कवि ने सरस्वती देवी और गुरु जिनोदय सरि का वन्दन किया है, यथा
'सन्ति करण सिरि संतिनाह पयकमल नमेवी, कसमीरह मंडणीय देवि सरसति सुमरेवी, जुगवर सिरि जिण उदय सूरि गुरु गुण गायेसु ।
पाट महोत्सव रासुरंगि तसु हउँ पभणेसु ।” इस शताब्दी की भी अनेक ऐसी रचनायें उपलब्ध हैं जिनके लेखकों का नाम पता अज्ञात है किन्तु रचनायें महत्वपूर्ण हैं, अतः उनमें से कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। ____ अज्ञात कविकृत 'भरतेश्वर चक्रवर्ती फाग' यह रचना 'प्राचीन फागु संग्रह' में प्रकाशित है और इसे १५वीं शताब्दी की रचना बताया गया है। इसमें जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ के दो पुत्रों भरत
और बाहुबलि के पारस्परिक विग्रह और बाहुबलि के त्याग का वर्णन है। इस विषय पर सं० १२४१ में शालिभद्र ने 'भरत बाहुबलि रास' सम्भवतः मरुगुर्जर में सर्वप्रथम लिखा था। इस रास में आगे कहा गया है कि भरत चक्रवर्ती राजा हुआ। अपने यौवन में अनेक सुखोपभोग के पश्चात् अन्ततः १. ऐ० गुर्जर काव्य संचय प० २३०-२३२
२. श्री मो० द० देसाई-जैन गु० क० भाग १ १० १८ Jain Education International
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