SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरु-गुर्जर की निरुक्ति मानते हैं। 'आदिकालीन राजस्थानी जैनसाहित्य' में स्व० अ० च. नाहटा का स्पष्ट अभिमत है कि १३ वीं से १९ वीं शताब्दी के बीच राजस्थानी और गुजराती में लिखा गया समस्त जैन साहित्य मरु-गुर्जर जैनसाहित्य है । पुरानी हिन्दी नामकरण कुछ थोड़ी सी जैनेतर रचनाओं जैसे 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण', 'प्राकृतपैंगलम्' और कीर्तिलता आदि के आधार पर किया गया था, किन्तु इनके बाद जैन भांडारों से अपार जैन साहित्य प्राप्त हआ है जो मरु और गुर्जर या मरु गुर्जर भाषा में रचित है अतः इस समस्त साहित्य का सर्वाधिक उपयुक्त नाम 'मरु गुर्जर' ही है । मरु-गुर्जर जैनसाहित्य का काल-विभाजन-- वैसे तो कुवलयमालाकथा में ही मरु और गुर्जर का उल्लेख मिलता है किन्तु वस्तुतः मरु गुर्जर में काव्य रचना १३ वीं शताब्दी से प्रारम्भ होती है । वि० १३ वीं से १५ वीं शताब्दी तक अपभ्रंश के साथ या अपभ्रंश प्रभावित मरु-गुर्जर का साहित्य भाषा के रूप में प्रयोग होता रहा। अतः मरु-गुर्जर का आदिकाल सं० १२०१ से सं० १५०० तक मान्य है। इसके पश्चात् सं० १५०१ से सं० १९०० तक मरु-गुर्जर का मध्यकाल माना जाता है क्योंकि इस कालावधि में रचित मरु और गुर्जर जनसाहित्य में बहतेरी समानतायें हैं। कालविभाजन के सम्बन्ध में अधिकतर विद्वान इस मत के समर्थक हैं। श्री नरोत्तमदास ने 'किसनरुक्मिणी री बेलि' की प्रस्तावना में राजस्थानी साहित्य का आदिकाल सं ११५० से सं० १५५० तक माना है। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने 'राजस्थानी साहित्य' में आदिकाल सं० १०५० से १४५० तक माना है। डॉ. जगदीश प्रसाद ने 'डिंगल साहित्य' में सं० १३०० से १६५० तक आदिकाल की अवधि बताई है जो अधिकतर विद्वानों को मान्य नहीं है। डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने भी प्राचीन या आदिकाल सं० १५०० तक ही माना है। अतः आदिकाल १५ वीं शताब्दी तक और १६ वीं से १९ वीं तक मध्यकाल प्रायः सर्वमान्य है। २० वीं शताब्दी से इन भाषाओं का साहित्य सर्वथा भिन्न रूप ग्रहण करता है अतः आधुनिक कालीन साहित्य को एक 'मरु-गुर्जर' शीर्षक के अन्तर्गत समेटना न तो संगत है और न संभव । यह उल्लेखनीय है कि यह काल 'विभाजन किसी युग की किसी विशेष साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रधानता के कारण नहीं किया गया है क्योंकि जैनसाहित्य सर्वत्र शान्तरस प्रधान और धर्मभावना प्रवण है जिसमें महापुरुषों के चरित्रों के माध्यम से धर्मोपदेश की प्रवृत्ति ही प्रधान रही है। अतः कालविभाजन का आधार प्रवृत्ति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy