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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बन पाती । अतः दोनों भाषाओं के साहित्येतिहास के ग्रन्थों में प्रायः एक ही कवि को दोनों ने अपना-अपना लेखक घोषित किया है । स्व० अ० च० नाहटा इसलिए स्पष्ट कहते हैं कि राजस्थानी जैन साहित्य को गुजराती साहित्य से पृथक करने में बड़ी कठिनाई है। यह स्थिति आदिकाल में ही नहीं वरन् मध्यकाल में भी बहुत कुछ बनी रही।
इन दोनों कालों में दोनों प्रदेशों की सांस्कृतिक तथा धार्मिक एकता के आधार परभाषाई,एकता मजबुत हई, साथ ही इन प्रदेशों की भाषाओं का मूलस्रोत भी एक ही भाषा-पश्चिमी शौरसेनी होने के कारण उनमें मौलिक ऐक्य स्वाभाविक रूप से पाया जाता है। सं० १२२५ के आसपास लिखित वज्रसेनसूरिकृत ४५ पद्यों की रचना 'भरतेश्वरबाहुबलि घोर' के आधार पर रचित वज्रसेन के पट्टधर शालिभद्र सूरिकृत 'भरतेश्वरबाहुबलिरास' की भाषा स्पष्ट मरु-गुर्जर का प्राचीन उदाहरण है। जिसे गुजराती राज. स्थानी या पुरानी हिन्दी कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सोमप्रभ कृत कुमारपालप्रतिबोध और मध्ययुगीन ( जहाँगीरकालीन ) जैनाचार्य भानुचन्द्र आदि की भाषा के नमूने 'तुम पासिथिई मोहि सूख बहत होइई' आदि इस प्रकार की भाषा ऐक्य के अन्य उदाहरण हैं। मालदेव ने भोजप्रबन्ध का निम्न दोहा प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया है कि यह रचना हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती तीनों भाषाओं की है
"गोकुल काई ग्वारिनी ऊँची बइठी खाटि,
सात पुत्र सातउ बहू दही विलोवति माटि ।' इस प्रकार तीनों भाषाओं की एकता का पुष्ट आधार हमें अनेक साक्ष्यों से प्राप्त होता है।
'मरु-गुर्जर' शब्द की उपयुक्तता-इसके लिए पूर्व प्रचलित शब्द "पुरानी हिन्दी' में अतिव्याप्ति दोष प्रतीत होता है क्योंकि श्री गुलेरी जी और श्री राहल जी जैसे विद्वान् मरु-गुर्जर प्रदेश में रचित १० वीं शताब्दी सक की समस्त रचनाओं को पुरानी हिन्दी के अन्तर्गत परिगणित कर लेते हैं । आधुनिक विद्वान डॉ. मोतीलाल मेनारिया भी इन प्रदेशों के समस्त जैनेसर साहित्य (डिंगल, पिंगल काव्य साहित्य) को हिन्दी का साहित्य मानते हैं जिससे इन प्रदेशों के विद्वान् सहमत नहीं हो पाते, अतः श्री देसाई जी और श्री नाहटा जी जैसे विद्वान् इसे मरु-गुर्जर कहना ही अधिक समीचीन १. श्री अ० च. नाहटा–'मध्यकालीन राजस्थानी जैन साहित्य परम्परा',
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