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________________ मरु- गुर्जर की निरुक्ति १३ शब्दों के प्रयोग बचते अवश्य थे किन्तु वे सहज रूप से आते ही गये । भक्ति आन्दोलन के कारण इस प्रवृत्ति को बड़ा बल मिला; अतः काव्यभाषा में कुछ काल तक तत्सम और तद्भव रूप एक साथ चलते रहे जैसे विधुबैनी और चन्द्रवदनि, लोयन और लोचन; मैन और मदन, चरिउ और चरित आदि । श्री गुलेरी जी ने लिखा है कि ७वीं से ८वीं शताब्दी में अपभ्रंश के दो रूप थे; एक परिनिष्ठित, जिसका साहित्य में प्रयोग होता था, दूसरी लोकभाषा, रचनायें इसमें भी होती थी और इस लोकभाषा में ही मरु-गुर्जर (पुरानी हिन्दी) के बीज प्राप्त होते हैं और यही आज की हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती की जननी है।' गुजरात में जैन साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया, साथ ही जैनेतर विशेषतया वैष्णव साहित्य भी कम नहीं लिखा गया । हिन्दी के विकास में तो स्वामी दयानन्द, लल्लू जी लाल और म. गांधीजी के योगदान को कभी भुलाया ही नहीं जा सकता। ____मरु-गुर्जर की एकता का आधार- वैवाहिक सम्बन्ध, व्यापार, तीर्थयात्रा आदि के द्वारा एक स्थान की भाषा दूसरे स्थान तक फैलती है। गुर्जर और राजस्थानी व्यापारी वर्ग तथा जैन धर्मावलम्बी साधुसमाज ने भाषा-एकता को सुदृढ़ किया। जैन मुनि दोनों प्रदेशों में निरन्तर विहार करते थे। राजस्थानी जैनश्रावक भी व्यापार और आजीविका के लिए अधिकाधिक संख्या में गुजरात जाकर बसे। वैसे भी मालवा की बोली राजस्थानी का ही एक रूप है। इसलिए दोनों प्रदेशों की भाषा में पर्याप्त साम्य स्वाभाविक है। गुजरात और मारवाड़ की सीमायें मिली हुई हैं। इसलिए दोनों प्रदेशों की भाषा रचना में १३वीं शताब्दी तक स्पष्ट भेद नहीं दिखाई पड़ता। जैनधर्म के कुछ गच्छों का प्रभाव गुजरात और राजस्थान में समान रूप से पाया जाता है अतः ऐसे गच्छों के लेखकों की भाषा में स्वभावतः राजस्थानी और गुजराती के प्रयोग समान रूप से प्राप्त होते हैं। इसलिए मरु-गुर्जर के आदिकाल (१३वीं से १५वीं वि०) की रचनाओं में भाषा के आधार पर स्थानभेद कर सकना असम्भव है। मध्यकाल (१६वीं से १९वीं वि०) की भी उन तमाम रचनाओं को, जिनमें रचनास्थान का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, राजस्थानी या गुजराती भाषा की रचना घोषित करना कठिन कार्य है। १५वीं शताब्दी के बाद जनभाषायें अपनेअपने प्रदेशों में अपना स्वतन्त्र विकास अवश्य करने लगी थीं परन्तु उनमें शब्द एवं प्रयोग साम्य इतना अधिक है कि उनकी स्पष्ट पहचान नहीं १. श्री च० श० गुलेरी-पुरानी हिन्दी पृ० १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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