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________________ ३०२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्त 'इय थुणिय जिणिंदा उत्तरादेस इंदा, गिरिपुर नगरत्था जेमया दिट्ठतित्था । जिकिवि पुण अदिट्ठा जे तिलोए गरिट्ठा, वर जिणहर वन्दे तेवि भावेण वन्दे ।' ११ । जीरावला वीनती । गाथा ९ ) का एक उदाहरण उनकी वीनती संज्ञक रचनाओं की प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। रचना का आदि और अन्त इस प्रकार है :'सोहग सुन्दर पास जिणेसर, जीराउलिवर नयर नरेसर सेस रचियपय सेव । सफल मणोरह मेरिउसामी, मन ऊलरि तसु सिरवर नामी, पामी सुहसय हेव । अन्त 'जीरावलि मंडण दुरिय विह उंण पास जिणेसर भत्ति भरे । बिनबिउं हरिकलसिहिं नवनिधि बिलसहिं जे प्रणमई तुह चलण परे।' 'आदीश्वर वीनती' की अन्त की पंक्तियों से प्रकट होता है कि ये धम्मसूरि वंशी थे। 'इय धर्म सूरि वंसिहि मुणि हरिकलसिहि बिन विउ जिणबर इक्कुमणि, मुझ देज्यो ते दिणु भवि भवि अणुदिणु, सेवु तुम्ह पयकमल जिणि ।' इस प्रकार इनकी तीर्थमाला और वीनती संज्ञक रचनाओं के कुछ उद्धरण उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किये गये जिनसे इन रचनाओं की भाषा और भावात्मक स्थिति का अनुमान पाठक कर सकें। हलराज-आपने मेवाड़ के आघाट नगर के पार्श्व जिनालय में सं० १४०१ में 'स्थूलिभद्र फागु' नामक अपनी रचना लिखी। उस समय तक स्त्रियाँ मिलकर फाग खेलती थीं और फागु काव्य प्रधानतया गाये जाने के लिए ही लिखे जाते थे। इस फागु में इस तथ्य की ओर संकेत निम्नांकित पंक्तियों से मिलता है : 'वरु तरुणी मिलि दियइ, रास एक फागु खेलावई । तसु अंगणि नव निधि रमइ संपति घरि आवइं । फागु का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है : 'सरसति सामिणी वीनवऊ बेकर जोडेबी, थूलभद्र मुनिवर चरित्र, कहिस्यऊ गुण केवी । नंदराय पाडलीय नयरि, तहि राज करेइ, तासु तणइ अधिकार, विप्र सगडाल तणेइ। १. श्री अ0 च0 नाहटा-मरु गर्जर जै० कवि प० ९९ २. श्री मो० द० देसाई जै० गु० कवि भाग ३ प० ४२-१३ __ और श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' प० १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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