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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
महावीर २७ भव स्तव के प्रारम्भ की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं'गोयम गणहर पाय लागऊ करिवा कवित शकति हुँमागु मझकरी पसाउ, जयउ जिण बीर अखय सुखवासी, सतावीस भव हुँ भणिसु विमासी,
सफल करिसु नर जन्म'।१। आपकी प्रथम रचना 'नेमिनाथ नवभव स्तव' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये :
'जय जय नेमि जिणंद, समृद्रविजय राय कुल तिलु, तिहुयण मयणानन्द मुख जिम पूनिम चंदलउओ ।
अभिनव गुरु गोयम अहव कि सोहम सिरि सोमसुन्दर पवर, गुरु सिरि मुणिसुन्दर सूरि पुरन्दर सिरि जयचन्द मुणिंदवर गुरु सिरि जिनकीरति ग्यारइ गणधर ताससीस इम भणइ । जो भविअ भणेसि भाव सुणेसि चिंतामणि करि तेहतणइ । श्री मो० द० देसाई ने भी जै० गु० क० भाग १ द्वितीय संस्करण पृ० ४८ पर यह अनुमान किया है कि 'महावीर २७ भवस्तव' के अन्त में आया 'भलउ' शब्द रचनाकार का नाम हो सकता है। भाषा की दृष्टि से ये दोनों रचनायें मरुगुर्जर का प्रकृत रूप प्रस्तुत करती हैं। काव्यत्व का इनमें प्रश्न नहीं उठता क्योंकि प्रायः ऐसी रचनायें शूद्ध धार्मिक दष्टिकोण से प्रेरित होने के कारण इनमें कवि सरसता और काव्यत्व पर विशेष ध्यान नहीं दे पाता।
हरसेवक-आपने सम्भवतः सं० १४१३ ? में 'मयण रेहा रास' लिखा। इसमें सती मदनरेखा का चरित्र चित्रित किया गया है। इसके अन्त में रचना काल का उल्लेख भिन्न-भिन्न प्रतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से किया गया मिलता है, यथा--
गाम ककडीओ को चोमासो, संवत चौदो तेरा मांयो।। दूसरी प्रति में, गाम केकडी कीनो चोमासो, वरस चवदोतरा मांहि ।
मिलता है। इसलिए रचनाकाल का निश्चय नहीं हो पाता। यह एक विस्तृत रास है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है :१. श्री मो० द० देसाई जै० गु० क० भाग १ प० १७ २. वही
भाग ३ ५० ४१९
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