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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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स्थूलभद्र कवित्त - मरुगुर्जर की रचना है। इसका एक उदाहरण
देखिये
'आज सखी मझ सफल विहाणउं, नयणि मलिउ जवनाह, कोशा कहइ कोइ वेस अपूरव, करिअल कमल निवाह ।' बहिनी बोलिवो नाह आगलि, कीजइ कहि कुण मती । हाथि दंड कांधि कांबलड़ी ऊधऊ मुहि मुहपती । इस छन्द में आये मुँहपती को लेकर यह प्रश्न उठाया जाता है कि लोकाशाह से पूर्व मुख पर मुहपत्ति शब्द का तात्पर्य यदि वर्तमान स्थानकवासी साधुओं की मुँहपत्ति से हो तो रचना बाद की हो सकती है, किन्तु अधिकतर विद्वान् यह मानते हैं कि हाथ में लिए होने पर भी उसका नाम हपत्ति ही था और इसे पुरानी रचना ठहराते हैं किन्तु यहाँ 'मुहि' शब्द का प्रयोग विचारणीय है । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये :
'चन्द्र गछि गिरुआ सुपसा सिरि सोमसुन्दर सूरि
aris कवित्त कींधऊ अति घण आणंद पूरि ॥७०॥
७० वें छन्द के बाद प्रति त्रुटित होने से रचना का विशेष विवरण नहीं प्राप्त होता ।
इसी काल के आसपास एक दूसरे सोमसुन्दर सूरि भी हो गये जिन्होंने सं० १५१० में स्याद्वाद सम्बन्धी एक रचना मेवाड़ के राणा कुम्भा (कुम्भकर्ण) के शासनकाल में किया था। हो सकता है कि इन दूसरे सोमसुन्दरसूरि की भी कुछ रचनायें आ० सोमसुन्दर सूरि के नाम से गिनी जाने लगी हों क्योंकि उनका देहावसान सं० १४९९ में हो गया किन्तु सं० १५०२ की लिखी नवतत्व वालावबोध को उनकी रचनाओं में गिना जाता है । शायद इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी मिल जाँय, अस्तु । आ० सोमसुन्दर सूरि युग निर्माता महापुरुष, धर्माचार्थ और महान् साहित्यकार थे ।
सोमसुन्दर सूरि आदि शिष्य – आपकी दो रचनायें, नेमिनाथ नवभव स्तव (३४कड़ी) और 'महावीर २७ भव स्तव' उपलब्ध हैं । यह आदि शिष्य कौन था यह तो ज्ञात नहीं हो सका किन्तु दूसरी रचना के अन्त में' 'भलउ शब्द को रचना का कर्त्ता भी माना जा सकता है । वे पंक्तियाँ देखिये :'गुरुश्री सोमसुन्दर सूरि पुरंदर वसु सेवक कर जोड़ी दोइ 'भलउ' भणि, जिण देवा भवि भवि सेवा देज्यो अम्ह सेवक भणीअ |३०|
१. मो० द० देसाई - जै० गु० क० भाग १ पृ० २९-३०, भाग ३ पृ० ४३९ २. वही भाग १ पृ० ४४१-४२
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