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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य २९५ इसका अन्तिम पद्य देखिये :'गुण ठाणानु अह विचार, जे जानइ ते तरइ संसार, वाचक साधुकीरति इम कहइ, ते निश्चय सासय सूख लहइ ।४६।' 'कीतिरत्नसरि गीत' में कीर्ति रत्न मूरि की कीर्ति का बखान किया गया है। इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैं : 'सुहगुरु थवणा पढ़इ गुणइ वांचता आपण वयण सुणइ । कुशल मंगल तसु पुण्य थुणइं, श्री साधु कीरति पाठक पभणइ ।१४ ।” 'सवत्थ बेलि प्रबन्ध' के आदि और अन्त का छन्द निम्नवत् है :आदि 'जिणवर जग गुरु जगतउ, पहिलउ प्रणम्पास, जासु पसायउ संपजइ, विधि विधि सवे विलास ।१।' अन्त 'जो लगि मेरु महीधर निश्चल जांलगि ध्र रविचंद, जां लगि दीप सवे जयवन्ता सागर जाम अमन्द । तो लागि श्री जिणचंद मुणीसर सुखइ करउ चिरराज, साधुकीरति गणि इमि पयपइ पूरउ वंछित काज ।५४।' इस प्रकार इनकी रचनाओं के कुछ उद्धरणों के आधार पर इनकी भाषा और भाव-कल्पना शक्ति का भलीभाँति अनुमान होता है। ये उत्तम कोटि के कवि प्रतीत होते हैं। साधुहंस--आप तपागच्छीय आ० जिनशेखर सूरि के प्रशिष्य और जिनरत्नसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १४५५ में 'शालिभद्र रास' और 'गौतम पृच्छा चौपइ' नामक रचनायें लिखीं। शालिभद्र रास का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है : 'देवि सरसति देवि सरसति सकल संसार, जस नामिइ कवि जन सवे बधि अतिहि सरस वाणीय । वीणा पुस्तक धारिणीते सामिणि मन मांहि आणीय कर जोड़ी कवियण भणइ, सुहरु पाय पणमेवि । सालिभद्र धना तणां चरीय रचेल संषेवि ।। अन्त में रचना इस प्रकार दिया गया है : 'संवत चउदह पंचावनि वरसि, आसो सुदि विजयानइ दिवसि, जिन वचने करि सद्दवहिउ, भाविइ भगति हैयडउ धरिउ ।२१९। १. श्री गो० द० देसाई जै० कवि भाग १ १० ३४-३५, भाग ३ खण्ड १ १० ४४२ और भाग ३ खंड २ प० १४८०-१४८१ २. दे० ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह ३. मो० ८० देसाई, जे० गु० क० भाग १ पृ० २२ और भाग ३ पृ० ४२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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