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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर्त्ता सर्वानन्द सूरि को श्री मो० द० देसाई ने क्रियागच्छ का विद्वान बताया है । कृति में रचना सम्बन्धी विवरण नहीं है । इसका प्रथम पद्य देखिये :
'सयल मंगल सयल मंगल मूलु मुणि नाह । आबुगिरि आदि जिण पाय पउम पणमेवि भाविणु । कछौली मुख मंडण पासनाहु उखरि धरेविणु, वागुवाणि सुम वयणले अवतरी अक्षरमाल । मंगलकलश चरित हित भणसिउ रलिअ रसाल 1912
चौपई बंध में रचित इस रचना में १३० पद्य हैं । इसमें महापराक्रमी राजा मंगलकलश का महान् चरित्र चित्रित है । इसके अन्तिम दो छंद इस प्रकार हैं :
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'राजा ग्रहीउ ताम सुबुद्धि, घर घर बारत लोधी रिद्धि, छूटइ मंगलकलश उपरोधि, देश नीकालिउ अणि विरोधि । १२९ । मंगलकलश निवेसिउ राजि, सुर सुंदर हूउ संजम काजि ताम निसाणो बलीउ थाऊ, मंगलकलश महाबलि राउ |१३०| ' साधुकीत - आप बड़ा तपगच्छीय आ० जिनदत्त सूरि के शिष्य थे । आप १७वीं शताब्दी के साहित्यकार और आषाढ़भूति प्रबन्ध के कर्त्ता साधुकीर्ति से भिन्न हैं । आपकी कई रचनायें मरुगुर्जर भाषा में लिखित प्राप्त हैं जिनमें मत्स्योदरकुमाररास, विक्रमकुमार रास सं० १४९९, गुणस्थानक विचार चौपइ ४६ कड़ी, सवत्थवेलि प्रबन्ध ( ऐ० ) और कीर्ति - रत्न सूरि गीतम उल्लेखनीय हैं । अन्तिम रचना 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित है । मत्स्योदर कुमार रास का उल्लेख डॉ० हरीश ने भी १५वीं शताब्दी की रचनाओं में किया है । यह रास मुख्यतया चौपई छन्द में लिखा गया है । इसके अन्त की दो पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं : 'बड़तप गच्छ श्री जिनदत्त सूरि, तास सीस जंपइ गुणभूरि, साधुकीर्ति गणि रचीउ रासि भणउ गुणह तस पूगइ आस । १५७ ।'
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'गुणस्थानक विचार चौ०' भी चौपइ छन्द में लिखी ४६ कड़ी की रचना है । इसका प्रथम पद्य प्रस्तुत है
चउद गुणठाणां तण विचार, मो० द० देसाई जैन गु. क. भाग १,
'स्वामिय जिणवर चउविह भेय, समरिय गोयम लब्धि समेय । संखियई तुं बोलिसु सार |१| पृ० ३५ और भाग ३ पृ० ४४४
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