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मरु- गुर्जर जैन साहित्य
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इसमें विरह की उक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं । यह छोटी रचना काव्यत्व की दृष्टि से बड़ी सफल रचना है । 'नेमिचरितरास' की अन्तिम पंक्तियाँ देखिये :
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'असो अमावस केवल नाण, नेमि तणु तु निरवार, राजमती सु सुसई गउ, बाबीसय जणेसर भउ । भगति राणी राजल तणउ योग, पढ़त भणता नासइ रोग | नेमि चरिन सूसा नारी सुणइ पाप पणासइ समरुउ भणइ |२८| ' 'अष्टापद स्तवन' का प्रारम्भ इन पंक्तियों से कवि ने किया है :'सरसति अमरिति वसति मुखि वाणी, नाभि कमलि जाणी सहनाणी, आणी रिदय विचारो ।' सा सारदा समरू सयराणी, जिन शासनि सिद्धान्त वरवाणी, पाणी लोकाचारो ।'
'अष्टमी स्तवन' से भी भाषा भाव के उदाहरणार्थं कुछ पंक्तियाँ आगे प्रस्तुत की जा रही हैं
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'अरे केवली केरो दाखीओ, भाखीओ सुगुरु सुसाध, भसौय समरो अ तीरथ अनरथ हणय विराध, सुध पूरब केवल भाखीओ, केवल सद्गुरु दाखीओ, चरणवी समरो कह न जणु, परब तीरथ नमो जिणाणु' | ६४ | '
काव्यत्व की दृष्टि से ये दोनों स्तवन सामान्य कोटि के हैं । भाषा सरल महगुर्जर है । सामान्य श्रद्धालुओं के पूजा-पाठ की दृष्टि से इन स्तवनों की भाषा भी जनसामान्य की भाषा ही रखी गई है । काव्यत्व का उत्तम निदर्शन आपकी प्रथम रचना 'नेमिचरितरास' में ही हुआ है । जैन साहित्य में नेमिचरित है ही ऐसा कि 'कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ।'
सर्वानन्द सूरि - सर्वानन्द सूरि नाम के दो-तीन कवियों का उल्लेख इतिहास ग्रन्थों में मिलता है । एक सर्वानन्द सूरि १४वीं शताब्दी में हो गये हैं जिनकी चन्द्रप्रभचरित नामक अपभ्रंश रचना का उल्लेख किया गया है । १५वीं शताब्दी में कम से कम दो सर्वानन्दसूरि मिलते हैं एक जगडू चरित के लेखक हैं और दूसरे प्रस्तुत कृति 'मंगल कलश चौ० ' के लेखक हैं। हो सकता है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति हों । 'मंगलकलश चौ०' के १. श्री अ० च० नाहटा - म० गु० जै० कवि पृ० १०८
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