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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रास के ४३वें पद्य में कवि का नाम आया है, यथा :'जइ सुरगुरु निय बुद्धिहि आणइ, तोही प्रभु गुण पार न जाणइ ।
सइमप्रभ गणि इम कहइ ओ।' इसका अन्तिम छंद इस प्रकार है :'जा द्र्य ग्रह तारा रवि शशिहर, तां नंदउ जिनभद्रसूरि गणधर,
चउविह संघह परिवरिउ ।४५।' १५वीं शताब्दी की रचनाओं और रचनाकारों में इसका उल्लेख डा० हरीश ने भी अपनी पुस्तक में किया है। रचना सामान्य कोटि की है किन्तु ऐतिहासिक घटनाओं के लिए पठनीय है।
समरा-आपकी रचनाओं 'नेमिचरित रास' 'अष्टापद स्तवन' और अष्टमी स्तवन (६४ कड़ी) में से प्रथम रचना नेमिचरित रास' 'प्राचीन फाग संग्रह' में प्रकाशित है। इस फाग का अधिकांश भाग राजूल की विरहोक्ति के रूप में कहा गया है। कथा सुपरिचित होने के कारण केवल सूत्र रूप से संकेतित की गई है। इसी प्रकार पद्मकृत फाग में भी १० कड़ी में वसंत वर्णन
और शेष केवल चार कड़ियों में ही नेमि-राजुल की कथा सिमटी हुई है। नेमिचरित रास मात्र १० कड़ी की रचना है । इसमें विरह वर्णन के लिए ही पूरा अवकाश नहीं मिलता है तो कथा के लिए कवि कहां से अवसर निकाल सके । एक विरहोक्ति देखिये, जिसमें राजुल चंदा से नेमि का समाचार पूछती है :
'चंदा कहि न संदेशडउ वीनतडी अवधारि,
शुधि पूच्छउं यादव तणी त जाइसि गिरिनार ।६। इसका आदि इस प्रकार है :
'अहे हरिणां हरिणां हरवई काइं कीऊ पोकार, तोरणि आविऊ वली गयऊ नेमि चडिउ गिरिनारि । अहे अंग विलूरइ आपण हरि हरि नेमिकूमार,
अहे कंकण फोणइ रायमइ, भोडइ नवसर हार ।' कवि का नाम इस छन्द में आया है :--
'मुगति रमणि यादवि करी राजल हुइ अगेवणि ।
अहे करजोडी समरउ भणइ, नमो नमो नेमिकुमार।" १. श्री मो० द० दे० जैन गु० क ० भाग ३ पृ० १४८०-८१ २२. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ५१
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