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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२८९.
की इस छोटी रचना में णमोकार मन्त्र का माहात्म्य बताया गया है। इसकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव अधिक है। आपकी दूसरी रचना 'आराधना प्रतिबोधसार' ५५ पद्यों की सुन्दर कृति है। 'सार सीखामण रास' में चार ढाले हैं। इसका रचनाकाल सं० १४७९ से ९९ के बीच कोई वर्ष हो सकता है। इसमें सरस शैली में धर्मोपदेश किया गया है। इसमें भी राजस्थानी का अनुपात अधिक हैं । सार सीखामण रास की चौथी ढाल में शिक्षा देता हुआ कवि कहता है :
'योवन रे कूटम्ब हरिधि, लक्ष्मी चंचल जाणीइए। जीव हरे सरण न कोइ, धर्म बिना सोइ आजीइए। संसार रे काल अनादि, जीव आगि घणु फिरयुए। अकलि रे आवि जाइ, करम आगे गलि थरयुए। कायथी रे जू जू होइ कूटम्ब परिवार बेगलए।
खिमा रे खडग धरेवि, क्रोध विरी संघाणीइए।' इत्यादि 'सोलहकारण रास' तथा शान्तिनाथ फागू ( तीर्थंकर शान्तिनाथ का संक्षिप्त जीवन चरित्र ) में मरुगुर्जर के साथ कहीं-कहीं प्राकृत की गाथा और संस्कृत के श्लोक भी निबद्ध हैं। 'सोलह कारण रास' एक कथात्मक कृति है जिसमें 'सोलहकारण' व्रत के माहात्म्य पर प्रकाश डाला गया है ।। इस रास की अन्तिम पंक्तियां देखिये :
'एक चित्ति जे व्रत करइ, नर अहवा नारी, तीर्थंकर पद सो लहइ, जो समकित धारी । सकलकीर्ति मुनि रासु कियउए सोलहकारण,
पढ़हि गुणहि जो साभलहि तिन्ह सिव सुह कारण।'' शान्तिनाथ फागु की भाषा सरस एवं मनोहारी है । भाषा का नमूना देखिये :
'नृत सुत रमणि गजपति रमणी तरुणी सम कीडते रे । बहुगुण सागर अवधि दिवाकर सुभकर निसिदिन पुण्य रे। छडिय मय सूख पालिय जिनदिख सनमूख आतम ध्यान रे।
कणसण विधना मुमीअ असूना आज्ञा जिनवर लेवि रे।'3 १. डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल रा० जे० सन्त कवि पृ० १८ २.
वही पृ० १९ वही पृ० २०
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