________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२८७ सम्भावना व्यक्त की है। दोनों का रचनाकाल भी प्रायः एक ही है। दोनों रचनायें 'प्राचीन जैन रास संग्रह' में एक साथ ही प्रकाशित हैं। इसका मंगलाचरण इन पंक्तियों से प्रारम्भ हुआ है :
'कासमीर मुख मंडण माडी, तूं समी जगि न कोई भिराडी। गीत नादि जिम कोइलि कूजइ, तूं पसाइ सवि कुतिग पूजइ । १।
पंच पंडवि वनंतरि विमासिउं, तेरिमूं बरस केमि गमिसिउं ।
बुद्धि नारदि महारिषि आपी, मध्यदेश रहियो तुम्हि व्यापी । ३ । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ भाषा के नमूने के लिए प्रस्तुत हैं :
'गिऊ कौरवाधिपति सैन्य समस्त हारी, गिउ पार्थ उत्तर सहिउमनु हर्ष भारी। आणिउ विराट चिहु पाण्डव हर्ष पूरि,
कीधउ कवित्त इहह कुतिगि सालिसरि ।। कवि ने इसमें रचना सम्बन्धी विवरण नहीं दिया है। इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १६०४ की प्राप्त है अतः यह रचना निश्चय ही १५वीं शताब्दी की होगी । इसकी भाषा मरुगुर्जर है।।
(भट्टारक) सकल कोति--आप सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्य थे। उन्हीं से इन्होंने संस्कृत भाषा और शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया था। आपका जन्म सं० १४४३ में हुआ। आपके पिता का नाम श्री करमसिंह और माता का नाम श्रीमती शोभा था। आपका परिवार अणहिलपुर पट्टण में रहता था। आप जाति के हुंबड वैश्य थे और बचपन का नाम पूर्णसिंह था। आपने १८ वर्ष की अवस्था में साधजीवन ग्रहण कर लिया। इन्हें ३४ वर्ष की अवस्था में आचार्य का पद प्राप्त हआ और उसी समय से इनका नाम सकलकीर्ति पड़ा। आपका संस्कृत और मरुगुर्जर भाषा पर पूर्ण अधिकार था और इन भाषाओं में आपने प्रचुर साहित्य लिखा है। डॉ० कासलीबाल ने आपके लिखे २७ ग्रन्थों की सूचना दी है।' आपके महत्वपूर्ण ग्रन्थों की सूची यहाँ दी जा रही है :
आपकी संस्कृत रचनाओं में मूलाचार प्रदीप, व्रतकथा कोष, नेमिजिन चरित्र, प्रश्नोत्तरी पासकाचार, आदिपुराण, उत्तरपुराण, शान्तिनाथ १. श्री मो० द० देसाई-० गु० क० भाग ३ पृ० ४१४-४१५ २. देखिए-भट्टारक सकल कीति रास ३. डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org