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मरु-गुर्जर जैन साहित्य वीरनन्दन-आपकी रचना का नाम 'पुरुषोत्तम पंच पाण्डव रास' ( २४ गा० ) है। यह १५वीं शताब्दी की रचना है किन्तु रचनावर्ष निश्चित नहीं है । इसमें पाण्डवों की कथा जैन मतानुकूल वर्णित है । इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है :
"पंडु नरेसर निय कुमरु, परिणवि सानंदु,
हत्थिणाहउरि पुरि आवियत, साथि करिउ गोविंदु ।१। रचना के अन्त में कवि का नाम मिलता है लेकिन रचना सम्बन्धी अन्य विवरण उपलब्ध नहीं होते, यथा :
"जादव पांडव कूमर सवे ते गुणहि समिद्धा, उत्तिम धम्म पवित्र गुत्त तिहु भुवणि प्रसिद्धा; राज करतउ धरह जगत्र रिषि तीरथ वंदउ,
जसु वित्थारह रिद्धि वृद्धि पावहु वीरुनंदउ ॥२४॥' शान्ति सूरि-आपकी १५वीं शती की एक छोटी रचना 'श्री अर्बुदाचल हीयाली' ( ६ गाथा ) प्राप्त है। हीयाली एक विशेष प्रकार का काव्य रूप है जो प्रहेलिका या बुझौवल के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इसकी व्युत्पत्ति शायद प्रहेलिका से हुई होगी। इसे हीयाली या गूढ़ा भी कहते हैं । 'वज्जालग्ग' में हीयाली एक पद्यवाली रचना के रूप में मिलती है किन्तु जैन ग्रन्थों में १५ वीं शताब्दी तक पांच से दस पद्यों तक की हीयाली मिलने लगती है। अमीर खुसरो की 'पहेली' भी प्रहेलिका या हीयाली का ही रूपान्तर है। इसका पहला पद्य देखिये :--
"विमल दंड नायक नी वसही सोजि अष्टापदि देउ ।
न्हवणइ नीरि निरमल थाइजि, जइ कोइ जाणइ भेउ । इसका अन्तिम पद्य भी नमूने के तौर पर प्रस्तुत है :
'नहीयलि घण गाजतु सभैलि कायर कंपइ देहइ, बारहमास सदा फलदायक, सुरहउ अविचल गेह । शांति सूरि भणइ अम्ह हीयाली जे नर कहई एह,
भटकइ झलहंती ते पाम इं, जाण मांहि जगि रेह ।' हीयाली की भाषा सरल और भाव गूढ़ होते हैं। यह एक प्रकार का लोक काव्य है जो प्रायः जानकार लोगों को कंठस्थ होता है। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४२२
२. श्री अ० च० नाहटा, म० गु० जे० कवि पृ० ११६ Jain Education International
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