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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रास का ४७वां और अन्तिम छंद इस प्रकार है :"कुंकुम चंदन छड़ो दिवरावउ माणिक मोतिनउ चउक पुरावउ । रमण सिंहा सणि वेसणु ए, तिह वइसि गुरु देसना दइसी । भविक जीवना काज सरेसी, नितनित मंगल उदय करउ ।४७।"
श्री मो०६० देसाई ने किसी अन्य प्रति से इस पद्य को इस प्रकार प्रस्तुत किया है :
आदिहिं मंगल अम भणीजइं,
परवि महोछवि पहिलू दीजइ, रिद्धि वृद्धि कल्याण करो।' इसमें अलंकारों का अच्छा प्रयोग किया गया है, यथा अनुप्रास का उदाहरण देखिये
विनय विवेक विचार सार गुण गणहु मनोहर (या) नयण वयण कर चरण जणवि पंकज जल पाडिय ।
रूपक-'चउदह विज्जा विविह रूव नारी रस लुद्ध । उपमा-'क्रोध मान माया मद पूरा, जापइ नाण जिम दिन चोरा । रस-इस रास के ३३वें छन्द से ३६३ छन्द तक गौतम स्वामी के विचार मंथन से अन्ततः शान्तरस का स्पष्ट परिपाक हुआ है। इसका प्रतिपाद्य गौतम की जीवनगाथा के काव्यमय वर्णन द्वारा जैन धर्म का अन्तिम लक्ष्य 'शम' की प्राप्ति है। इसकी भाषा आदर्श मरुगुर्जर है जिसमें यत्रतत्र अपभ्रश की झलक मिल जाती है। इसमें राजस्थानी और गुजराती के प्रचलित शब्दरूप प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं, जैसे चउदह, कल्याण करिज्जइ, विलसइ, पूनम, पढ़म, होसइ, वयण, थाण्या आदि राजस्थानी शब्दों के अलावा इणि, नरवइ, गिहबासे, तिहुयण, नाण, जेम, पेखवि, हुअउ, चउविह आदि गुजराती शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। इसमें साहित्यिक टकसाली भाषा के स्थान पर सर्वसाधारण बोलचाल की भाषा का रूप दष्टिगोचर होता है। वाक्य रचना सरल और भाषा बोधगम्य है। रचना में नाना प्रकार के छंदों और अलंकारों का प्रयोग किया गया है । विनयप्रभ रचित तीर्थमाला का प्रकाशन श्री अ० च० नाहटा ने जैनमाला में किया है । इनकी दूसरी रचना 'वीतराग विज्ञप्ति' का विवरण उपलब्ध नहीं हो सका अतः उसका विवरण देना संभव नहीं हुआ। १. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग १ पृ० १६
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