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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२४३ इन्द्रभूति ने उनसे दीक्षा ली और गणधर बने। गौतम गणधर को अपने गुरु के प्रति बड़ा लगाव होने के कारण उन्हें केवल ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ अतः महावीर स्वामी ने अपनी मृत्यु के पूर्व उन्हें कहीं अन्यत्र भेज दिया। इस घटना से ही गौतम को यह ज्ञान प्राप्त हआ कि कैवल्य के लिए वीतराग होना आवश्यक है--
'खाचो ए एह वीतराग, नेह ने जेहने लालिओ ए,
तिणो समे ए गोयम चित्त राग विरागे वलिओ ए। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में गौतमरास की बड़ी मान्यता है । इसकी बीसों प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। इस रास में महावीर के समय की सामाजिक स्थिति का सुन्दर चित्रण किया गया है । यह एक ऐतिहासिक रचना है। इसका प्रथम पद्य देखिये :--
'वीर जिणेसर चरण कमल कमलाकय-वासउ, पणमवि भणिसु सामि साल गोयम गुरु तसउ । भणु तणु वयण एकंत करिवि निसुणुह भो भविया,
जिम निवसइ तुमि देह-गेह गुण गण गहगहिया।' इसमें छन्द १ से छठे छंद तक मात्रिक छंद-रोला और चतुष्पदी का प्रयोग किया गया है। इसके बाद रड्डा और अन्य पुराने छन्द भी प्रयुक्त हैं। भ० महावीर का गुण वर्णन करता हुआ कवि कहता है :--
'चरम जिणेसर केवल नाणी, चितविह संघ पइट्ठा जाणी,
पावापुरी सामी संपत्तउ, चउविह देवनिकायहिं जुत्तउ।' इसके बाद गौतम के शिष्य बनने का प्रसंग वर्णित है :--
'मान मेलि मद ठेलि करि भगतिहिं नम्यउ सीस तउ । पंच सपांसू व्रत लियो ए, गोयम पहिलउ सीसतउ। नाम लइ आभास करइ ते पण प्रतिबोधय जउ । २०।1 गौतम स्वामी के भव्य व्यक्तित्व का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :--
'सात हाथ सुप्रमाण देह रुपिहिं रम्भावरु,
नयण वयण कर चरणि जिणवि पंकज जलि पाडिय । रचनाकाल का निर्देश ४५वें पद्य में देखिये :-- 'चउदह सय वारोत्तर वरसइ। गोयम गणहर केवल दिवसइ
कियो कवित उपगार-परउ, आदिहिं मंगल ए पभणीजउ । १. गौतमरास परिशीलन पृ० ११४
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