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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२८१ हैं । आपकी कई रचनायें उपलब्ध हैं इनमें से कल्याणक रासु, 'णिर्झर पंचमी कहा रास' और विहाड़ कहा अपभ्रंश प्रभावित भाषा की रचनायें हैं और इन्हें मरुगुर्जर की रचना कहना उचित नहीं लगता । इनकी एक छोटी कृति 'चूनड़ी' बड़ी प्रसिद्ध है और इसकी भाषा भी मरुगुर्जर है। इसकी सं० १५७६ की लिखी हस्तप्रति प्राप्त है अतः यह १५वीं शताब्दी की रचना होगी। भ० विनयचन्द्र का समय अनिर्णीत है। कहा जाता है कि आपने चूनड़ी की रचना अजयनरेश के गिरिपुर स्थित राजविहार में किया था। गुजरात के इतिहास में अजयराज नामक दो नरेशों का उल्लेख मिलता है। त्रिभुवनगिरि या वर्तमान करोली का शासक अजयराज विक्रम की १४वीं शताब्दी में था और कुमारपाल का भतीजा अजयराज १५वीं के पूर्वार्द्ध में था अतः यह रचना या तो १४वीं के अन्तिम या १५वीं शती के प्रारम्भ में हुई होगी।
चूनड़ी औरतों की ओढ़नी को कहते हैं जिसे रंगरेज नाना प्रकार के बेलबूटों से सजाता है। यह ३१ पद्यों की 'चूनड़ी' नामक रचना चूनड़ी को ही प्रतीक बनाकर लिखी गई है। एक मुग्धा नायिका अपने पति से ऐसी चूनड़ी की प्रार्थना करती है जिसे ओढ़कर जिनशासन में कुशलता प्राप्त हो सके। इस प्रकार धार्मिक भावों को ही चूनड़ी का रूपक प्रदान किया गया है । कबीर की 'झीनीझीनी बीनी चदरिया' इससे यदि परवर्ती रचना हो तो प्रभावित कही जा सकती है। जो हो, दोनों में पर्याप्त भाव साम्य है। भ० विनयचन्द की भाषा का नमूना निम्न उद्धरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है :--
'हीरा दंतपंति पडयंती, गोरउ पिउ बोलइ विहसंती सुन्दर जाइ सु चेइ हरि दप्पण, महुदय किज्जउ सुहय सुलक्खण।1
भाषा की थोड़ी सी बानगी देखने से तो कवि उच्चकोटि का प्रतीत होता है किन्तु इसके काव्य पक्ष का विस्तृत विवरण उपलब्ध न हो सकने के कारण वास्तविक मूल्यांकन सम्भव नहीं है।
विनयप्रभ -आप खरतर गच्छीय दादा जिनकूशल सरि के शिष्य थे। आपने संस्कृत, अपभ्रंश और मरुगुर्जर भाषा में काफी रचनायें की हैं । नरवर्म चरित्र सं० १४११ खंभात, महावीर स्तवन विमलाचल ऋषि जिन१. श्री कामता प्रसाद जैन-हिन्दी जै० सा० का सं० इ० प० ७१ और
हि० सा० वृ० इ० भाग ३ पृ० ३४७
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