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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जे भविय भणसिइ अनइ सुणसइ कर्म हणसिइ स्त्री नरो, विजयभद्र भणइ भलइ भाविइ वेगि वरसिई सयंबरो।७७।' श्रावक विद्धगु -आप ठक्कुरमाल्हे-पुत्र कहे गये हैं। आप जिनोदय सूरि के भक्त श्रावक थे। राजगृह के पार्श्वनाथ मन्दिर में सं० १४१२ का शिलालेख (३८१ श्लोक) संस्कृत में लगा है उसके आप ही कर्ता कहे जाते हैं । आपकी मरुगुर्जर में लिखी 'ज्ञान पंचमी' सं० १४२३ की रचना है । यह ५४८ छंदों की विस्तृत रचना है। इसमें श्रुतपंचमी या ज्ञान पंचमी व्रत के माहात्म्य पर कथा के माध्यम से प्रकाश डाला गया है। जिनोदय सूरि का आचार्य काल सं०१४१५ से सं०१४३२ तक मान्य है । अतः श्रावक विद्धण का भी यही समय होगा। इनके बचपन का नाम वीधा था। इनकी मरुगुर्जर भाषा पर गुर्जर का प्रभाव अधिक मालूम पड़ता है। प्रमाण स्वरूप 'ज्ञान पंचमी' से कुछ पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही हैंरचना का आदि :
'जिणवर सासणि आछइ सारु, जासू न लाभइ अंत अपारु, पढ़हु गुणहुँ पूजहुं निसुनेहु, सियपंचमि फलु कहियउ ऐहु।” चौथे छन्द में कवि का नाम है, यथा--
आठ दल कमल ऊपनी नारि जोणि पयासिय वेजइ चारि, ससि हरबिंबु अमिय रसु करइ, नमस्कार तसु विद्धनु करइ ।४।
आगे कवि ने अपना और अपनी रचना का थोड़ा परिचय दिया है जैसे :
'ठक्कर माल्हे पुत्तु विद्धणु पभणईसुद्ध म
हरसिहि लागउ चीतु चउदह सइ तेइ समइ । इसका अन्तिम छंद इस प्रकार है :
'इह सियपंचमी तेमि चिरु णंदउ संसार माँह,
ते नर सिवपुर जांहि पढ़हि गुणहिं जे संभलहिं ।५४८। इसकी भाषा स्वाभाविक बोल चाल की मरुगुर्जर है। सामान्य जनों को श्र तपंचमीव्रत का माहात्म्य समझाने के लिए लिखी गई इस रचना में काव्यत्व सामान्य कोटि का है।
भट्टारक विनयचन्द्र-आपको माथुर संघीय भट्टारक बालचन्द्र का शिष्य कहा जाता है । कुछ लोग इन्हें उदयचन्द्र (दिगम्बर) का शिष्य बताते १. मो० द० देसाई जै० गु०० भाग १ १.० १४-१५ और भाग ३ पृ०४१५.९६ २. वही
भाग ३ पृ० ४१८-४१९
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