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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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किसी-किसी प्रति में इसकी अन्तिम पंक्ति इस प्रकार भी है, यथा
'चारित्र पालि कर्म जालि केवली गुरु बेथया,
विजयभद्र मुनिवर जपे मोक्ष मन्दिर मा हिंया ।' कलावती सती रास में कलावती के सतीत्व का माहात्म्य बताया गया है। इसका प्रारम्भिक पद्य इस प्रकार है :
'भरत क्षेत्रि रे नयरी छि मगलावती, शंष राजा रे राज करइ जैसिउ सुरपती। एक दिवसे रे राई मंत्री बोलावीऊ,
दत्त मन्त्री रे देसाउर थी आवीउ । इसका अन्तिम पद्य भाषा के नमूने के रूप में उद्धृत किया जा रहा है
भूपनु सुत राज थापी लीघु संयम सुष भरिइ, देवलोकि बिहु पुहतां सुगति जासि अवतरी, कलावतीनी पछीय संझाय, न पडीइ संसारसिउं
विजयभद्र मुनिवर सतीयध्याइ, मोक्ष जइइ लीलसिउ । ४९ । इसमें मंगलाचरण के बिना ही पहले छन्द से कथा प्रारम्भ कर दी गई है। कथा में कौतूहल तत्व की रक्षा की गई है । काव्यत्व सामान्य कोटि का है। कवि की दृष्टि शिक्षा या उपदेश की ओर ज्यादा है। इसकी भाषा सामान्य जनता के लिए सुगम है । इनकी अन्य दो रचनाओं-हंसराज वच्छराज (सं० १४११) और शीलविशिषामण का श्री मो० द० देसाई ने केवल उल्लेख किया है विवरण उद्धरण नहीं दिया है। उन्होंने शीलविषे और शीलविषे शिषामण नामक दो अलग-अलग रचनायें बताई हैं पर लगता है कि दोनों एक ही हैं।
कलावती सतीरास की किसी अन्य हस्तप्रति में ४९वीं कडी के बाद निम्नलिखित पंक्तियाँ मिलती हैं जिनमें कवि परिचय है :
'गुण गिरुआ रे मेरुआ परि जसु महमहिया, गछनायक रे हेमविमल सूरि गहगहिया । गुण मंडिरे पंडित श्रेणि सिरोमणि, नित बांदउ रे लावण्यरत्न विद्या धणी। लावण्यरत्न हुँ सुगुरु गाऊँ सदा जाऊँ भामणाइ,
कलावती मइ कवित कीधउं अंग प्रसादिइगुरु तणइ । १. मो० द० देसाई जै० गु० क० भाग १ पृ० १४-१५ वही
खण्ड ३ पृ० ४१५-१६
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