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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२७५ रचना की है। पोरवाड़ वंशीय गेहा की पत्नी विल्हण दे की कुक्षि से जिनकीर्ति सूरि और राजलक्ष्मी पैदा हुए थे। सं० १४९३ में देवलवाड़े (मेवाड़) में शिवचूला साध्वी को महतरा पद प्रदान किया गया था। उसी समय रत्नशेखर को वाचक पद प्रदान किया गया। इस अवसर पर महादेव संघवी ने बड़ा उत्सव किया था। यह विज्ञप्ति उसी समय लिखी गई होगी। यह रचना ऐ० जै० काव्य संग्रह के तृतीय भाग में प्रथम स्थान पर छपी है । इसका प्रथम पद्य निम्नांकित है :
'शासन देव ते मन धरिए चउवीस जिन पय अणुसरीए।
गोयम स्वामि पसायलुए अमे गाइसि श्री गुरुणी विवाहलुओ ।' यह विज्ञप्ति भी एक प्रकार का विवाहलु है। वैसे आमतौर पर विवाहला दीक्षा के अवसर पर ही लिखे गये हैं किन्तु यह महत्तरा पद प्रदानोत्सव के अवसर पर लिखा गया है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही हैं
'द्र पदि तारा मृगावतीए, सीताय मन्दोदरी सरसती ए।
सीलसती सानिध करइए, भणवाथी श्री संघ दुरिया हरइ ।२०। इसमें गणिनी शिवचूला का चरित चर्चित है। भाषा सरल एवं काव्यत्व सामान्य कोटि का है।
राजशेखरसूरि-आप मलधारी गच्छ के आचार्य तिलकसूरि के शिष्य थे। आपका जन्म प्रश्नवाहन कूल में हुआ था। आप अभयदेवसूरि की परम्परा में हर्षपुरीय अथवा मलधारी गच्छ के विद्वान् थे। यह गच्छ कोटिकगण की मध्यम शाखा से सम्बद्ध था। आप प्रसिद्ध विद्वान् एवं आचार्य थे। आपने संस्कृत गद्य में प्रबन्धकोश (सं० १४०५) नामक प्रसिद्ध रचना की है। इसके अलावा श्रीधराचार्यकृत न्यायकंदली पर पंजिका, विनोदकथा संग्रह ( हास्यविनोद की लघु कथायें ) स्याद्वादकलिका, स्याद्वाददीपिका और षट्दर्शनसमुच्चय आदि अनेक रचनायें संस्कृत में प्राप्त हैं। द्वयाश्रय (प्राकृत) पर भी आपने वृत्ति लिखी। __ मरुगुर्जर में आपने सं० १४०५ के आसपास 'नेमिनाथ फागु' नामक छोटी किन्तु अत्यन्त सरस रचना की है । इसमें नेमि और राजुल की लोकविख्यात मार्मिक कथा अनुस्यूत है। नेमिनाथ के भक्तिपूर्ण विरहभाव में १. ऐ० जै० का० संग्रह पृ० ३३९ और श्री अ० च० नाहटा--म० गु० जै० कवि
पृ० १०६
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