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२७० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कन्या कोमल पाणिपाद कमला भत्तम लीला गति,
गोविंदेन मुदोग्रसेन सविधेराजीमती मागिता।'' इसकी भाषा मिश्र संस्कृत है । इसके प्रथम खण्ड में ३८, द्वितीय खण्ड में ४१ और तृतीय खण्ड में कुल ३४ छन्द हैं। यह एक विशेष भाषा-शैली थी। ____ 'नारी निरास फाग' प्राचीन फागुसंग्रह में प्रकाशित है। इसमें कुल ५३ छन्द हैं। इसे शांतरस पयोराशि रासक भी कहा गया है । शान्त रस समग्र जैनकाव्य का पर्यवसान स्थल है किन्तु इस रास में नारी के प्रसंग में विशेष रूप से शान्तरस के अवतारणा का प्रयास कवि ने किया है क्योंकि नारी के सन्दर्भ में शृंगार तो स्वाभाविक है किन्तु शान्त की अवतारणा कठिन कार्य है। इसमें भी संस्कृत छंदों का प्रयोग किया गया है और बीच-बीच में मरुगुर्जर के छन्द सजाये गये हैं यथा :
'रति पहुती मधुमाधवी साधवी शमरस पूरि, जिम महमही महीतल सीतल स्वजस कपूरि । पद्मिनि कुल मधुराजलि राजलि जिणितजि खेमि,
जगि जगऊ नितनव सुरयण सुरयण मंडन नेमि ।५१।' यह वसंतविलास की पद्धति पर लिखा गया फाग है किन्तु वह पूर्ण शृंगारिक रचना है और यह शृगार से निरास करने वाली रचना है अन्यथा इसकी समग्र संरचना वसंत विलास फागु की तरह ही है। इन्होंने संस्कृत में अधिक रचनायें की हैं जैसे 'जयकल्पलता' 'मुग्ध मेधाकरालंकार'
और 'सुकृतसागर' आदि। ये सब अलंकृत भाषा शैली की प्रसिद्ध रचनायें हैं। यह तो कहा गया है कि नारी निरास फाग में एक संस्कृत का छंद फिर एक मरुगर्जर का छंद है और जो भाव मरुगुर्जर छंद में है वही संस्कृत के छन्दों में है। इसमें नारी के प्रत्येक अंग की आलंकारिक उपमा को अन्यथा रूप से घटित करके उससे विरक्त होने का उपदेश दिया गया है जैसे नेत्रों के सम्बन्ध में कवि की यह उक्ति देखिये :-- "विकसित पंकज पाषडी, आषडी ऊपम चालि, ते विषसलिल तलावली
__ सा वलि पापिणि पालि।' या 'नरग नगरि मुख पोलि, कपोलि कपाट-विचार, ज्योति जलणमय
कुंडल, कुण्डलगार न सार ।२२।” १. श्री मो० ८० देसाई-जै० गु० क. भाग ३ पृ० ४३९-४१ २. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ७१
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