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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
द्वितीय गौ० छन्द का अन्त देखिये :
'सो वीर सीसु सूरीस वरु, महिम गरिम गुणि मेरु गुरु ।
सिरि गोयम गणहरु जयउ चिरु, सयल संघ कल्याण करु। इसी प्रकार श्री स्थूलिभद्र मुनीन्द्रच्छंदासि गाथा ८ और द्वितीय छ दांसि गाथा २५ है। इसके प्रथम का आदि 'जो जिण सासणि कमल वणिहि हंस जेम विक्खाउ ।
सो वन्निसु सोवन्न तणु थूलिभद्द मुणिराउ ।। दूसरे का अन्तिम छंद :
'उब्भिय उ हत्थु जिणि सील गुणि महिम सुरदुम देवकुरु, सो थूलिभद्द संघह जयउ मयण विडवणु मेरु गुरु ।२५।।
इस प्रकार इनकी तमाम कृतियों का बृहद् संसार है। आप उच्चकोटि के कवि और विद्वान् हैं।
मेघो (मेहो)-आपने सं० १४९९ में 'राणकपूर स्तवन' और उसी के आसपास 'नवसारी स्तवन' तथा 'तीर्थमाला स्तवन' लिखा । 'तीर्थमाला स्तवन' प्राचीन तीर्थमाला संग्रह और जैन युग पुस्तक सं० २ के पृष्ठ १५२ से १५६ पर प्रकाशित है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है :
'शेत्रुज सामी रिसह जिणंद पायतणी उम्मूल कन्द ।
पूज्या शिवसुख सम्पति दीइ, तूठे आप कन्हे प्रभु लीइ ।१।' इसका अन्तिम छन्द देखिये :
'महउ कहइ मुगतिनु ठाम, सदा लिउं तीर्थंकर नाम,
तीरथमाला भणउ सांभलउ, जाइ पाप छट हुइ निरमलु ।९२॥ 'राणकपुर स्तवन' का भी आदि और अन्त उद्धृत किया जा रहा हैआदि 'वीर जिणेसर चलणे लागी, सरसती कन्हइ सुमति मई मागी,
वृद्धि होइ जिम आयी।१। अन्त भक्ति करी साहम्मी तणी, अवं दरिदण दान,
चिहुदिसि कीरती विस्तरीओ, अधन धरण प्रधान । रचनाकाल संवत चदउ नवाणवइ ओ धुरि काती मासे,
मेहउ कहइ मई तवन कीयउं मनरंग उलासे । ४४ । १. श्री अ० च० नाहटा, मरु गुर्जर जैन कवि प० ६२-६३ २. श्री मो• द० देसाई, जै० गु० क० भाग १ पृ० २८ एवं भाग ३ पृ० ४३६
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