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मरु-गुर्जर जन साहित्य का बृहद् इतिहास 'अह सयल लक्खणं जाणि सुवियक्खणं सूरि दट्ठणं समरकुमारं।
भणय तुह नन्दणो नयण आणंदणो परिणओ अम्ह दिक्खा कुमारि।। दीक्षोत्सव का वर्णन देखिये :
'बाजइ मंगलत्तूर गुहिर सदि दियइ धवल वरनारि विविह परि । इण परि तेर वियासि संवच्छरि, समरिगुःलाडणु परिणइ वयसिरि।'
जैसा कहा जा चुका है सं० १३८२ में यह दीक्षोत्सव सम्पन्न हुआ था, उसी उत्सव का वर्णन इस विवाहलउ का मुख्य वर्ण्य विषय है।
श्री जीरावल्ला पार्श्वनाथ फाग सं० १४३२ की रचना मूलरूप से प्राचीन फाग संग्रह में प्रकाशित है। जीरावल्ला आबू के पास एक गाँव है। यह एक प्रसिद्ध जैनतीर्थ है जिसके पार्श्वनाथ मन्दिर की बड़ी महिमा है । यह फागु उसी पर आधारित है। पार्श्वनाथ की यात्रा के निमित्त एक सज्जन अपनी पत्नी से वार्ता करते हैं। उस समय वसन्त ऋतु की बड़ी सुहावनी छटा छिटकी हुई है, वातावरण यात्रा के लिए बड़ा प्रेरणादायक है, उस वातावरण में मन्दिर की रम्यशोभा, स्तति-पूजा आदि का वर्णन इस फागु का मुख्य वर्ण्य विषय है। ६० कड़ी का यह काव्य आन्तर प्रास वाले द्वहाबन्ध में लिखा गया है। लेकिन देसाई इसे ३० कड़ी की रचना बताते हैं।' लगता है कि वे चार पंक्तियों की एक कड़ी गिनते हैं। अस्तु, मन्दिर में उपस्थित नाना प्रदेश एवं जाति की रमणियों की शोभा के वर्णन का लोभ कवि संवरित नहीं कर पाता और लिखता है :
___गूजरडी गुणवंतिय तंतिय सर अवतारि,
मधुर वयण जब बोलइ तोलइ कुण संसारि । सरलित अंग लता जिम ताजिम नमतीय बंकि,
सोरठणी मनि गउलिय कउलिय मानि न लाकि ।' इस प्रकार की प्रादेशिक शोभा से युक्त नाना वस्त्राभूषणों से अलंकृत महिलाओं का वृन्द उल्लासपूर्वक नृत्य कर रहा है । चारों ओर प्रकृति में वसंत की मादकता छाई हुई है। कवि लिखता है :
१. जे० ऐ० गु० काव्य संचय प० २३४ २. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ १० ४२० ३. प्राचीन फागु संग्रह १.० ३७
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