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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२६५ आपने संस्कृत में भी बहुत से स्तोत्रादि लिखे हैं जिनका विवरण श्री नाहटा जी के लेख में जो वल्लभ विद्या विहार पत्रिका में प्रकाशित है, देखा जा सकता है । मरुगुर्जर में ज्ञानछप्पय, जिणोदयसूरि छंदासि आदि सुन्दर कृतियाँ हैं । 'विवाहलउ' के अनुसार आचार्यश्री का जन्म सं० १३७५ में रुद्रपाल श्रेष्ठि की धर्मपत्नी धारक देवी की कुक्षि से हुआ था। आपका परिवार प्रह्लादनपुर में निवास करता था। जिनोदयसूरि जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे। सं० १४१५ में वाचनाचार्य सोमप्रभ को गच्छनायक पद देकर उनका नाम जिणोदयसूरि रखा गया था। आपका बचपन का नाम समरा था। आपको जिनकुशलसूरि के उपदेश से वैराग्य हुआ और उन्हीं के द्वारा सं० १३८२ में इनकी दीक्षा हुई थी। इस विवाहलउ में जिनोदयसूरि की समस्त जीवन कथा है किन्तु इसका मुख्य विषय उनकी दीक्षा ही है। दीक्षा कुमारी के साथ जिनोदयसूरि के विवाह का रूपक वर्णन बहुत सुन्दर है । श्री जिनोदयसूरि का स्वर्गवास सं० १४३२ में हुआ। इसलिए इसी समय के आसपास यह विवाहलउ लिखा गया होगा। इसके प्रारम्भ और अन्त की पंक्तियाँ आगे उद्धृत की जा रही हैं :आदि ‘सयल मण वंछिय, काम कुम्भोवम, पास पय-कमल पणमेवि भत्ति ।
सुगुरु जिणउदय सूरि करिसु विवाहलउ, सहिय उमाहलउ मुज्झ चित्ति । अस्थि गूजरधरा सूदेरी सुदंरी, ऊखरे रयण हरोवमाणं । लच्छि केलिहरं नयरु पल्हणपुरं, सुरपुर जेम सिद्धाभिहाणं ।'
यह रचना ऐ० जै० काव्य संग्रह के अलावा जै० ऐ० गु० काव्य संचय में भी प्रकाशित और बहुचर्चित रचना है। इसकी अन्तिम पंक्तियां देखिये :
अहु सिरि जिणउदय सूरि निय सामिणो, कहिउ मइ चरिउ अरुमंद बुद्धि, अम्ह सो दिक्खु गुरु देउ सुपसन्नउ, दंसण नाण चारित सुद्धि । अह गुरुराय विवाहलउ जे पढ़इ जे गणइ जे सुणंति, उभयलोके वि वे लहइं मणवंछियं मेरुनन्दन इमि भणंति ।४४।'
१५वीं शताब्दी की मरुगुर्जर भाषा के अध्ययन की दृष्टि से भी इस विवाहल उ का बड़ा महत्व है । दीक्षाकुमारी से परिणय का आग्रह करते हुए समर कहते हैं :
१. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क. भाग १ पृ० १८ और भाग ३ पृ० ४२०
श्री अ० च० नाहटा-म० गु० जे० कवि प० ६२ और परम्परा पृ० १८०
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