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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास से मिलान करने पर शायद यह रचना आनन्दतिलक का ही रूपान्तर हो । डा• कासलीवाल ने इस रचना का नाम आनन्दतिलक बताया है किन्तु श्री अ० च० नाहटा ने उसका प्रतिवाद वीरवाणी वर्ष ३ अंक २१ में किया है और रचना का नाम महानन्दि बताया है, हो सकता है यह 'वारक्खड़ी' भी वही रचना हो । भाषा और भाव का साम्य इस अनुमान को पूरा बल देता है।
मुनिसुन्दर सूरि -आप तपागच्छीय आचार्य थे। आपने शान्तरास की रचना सं० १४४५ में की है इसका उल्लेख मात्र श्री मो० द० देसाई ने जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४२२ पर किया है। कोई विवरण-उद्धरण नहीं दिया है। इस रचना का उल्लेख डा० हरीश ने भी अपने शोधग्रन्थ के पृष्ठ २५८ पर किया है किन्तु उद्धरण नहीं दिया है अतः कवि की भाषा शैली का नमूना नहीं दिया जा सका है।
मेरुतुग-आप आँचल गच्छीय श्री महेन्द्रप्रभसूरि के पट्टधर थे। आपका जन्म सं० १४०३, दीक्षा सं० १४१८, आचार्य पद पर प्रतिष्ठा सं० १४२९ और गच्छ नायक पद पर स्थापना सं० १४४६ में हुई थी। सं० १४७१ में आपका स्वर्गवास हुआ था। आप नागेन्द्र गच्छीय चन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य प्रसिद्ध ग्रंथ प्रबन्धचिन्तामणि के लेखक मेरुतुग से भिन्न हैं। आप जयशेखर के गुरुभाई और समकालीन थे। आपने कातन्त्र व्याकरण पर वाला० वत्ति लिखी। आपने कुछ छोटे-छोटे स्तोत्र, स्तुति आदि पद्य में भी लिखे हैं परन्त आपका यश गद्यकार, बालावबोधकार के रूप में ही अधिक है।
मेरुनन्दन गणि-आप खरतरगच्छीय आ० जिनोदयसूरि के शिष्य और मरुगुर्जर के बड़े यशस्वी कवि थे। आपने मरुगुर्जर में अनेकों रचनायें की हैं जिनमें से कई प्रकाशित और प्रसिद्ध हैं। आपने सं० १४३२ में 'श्री जिनोदरसूरि विवाहलउ, सं० १४३२ में ही 'जीरावल्ला पार्श्वनाथ फाग' लिखा। प्रथम रचना विवाहलउ ऐ० जै० काव्य संग्रह में और द्वितीय रचना 'फागु' प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित है। पार्श्वनाथ फागु पं० लालचन्द भगवान दास गांधीकृत जीरावल्ला पार्श्वनाथ सम्बन्धी पुस्तक में भी प्रकाशित है। इसके अलावा आपने श्री गौतम स्वामि छन्द (गा० ११), श्री स्थूलिभद्र मुनीन्द्रच्छंदासि (गाथा ८), सीमंधर स्तवन (गा० ३१) और श्री अजित शान्तिस्तवन आदि भी लिखा है।
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