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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'कुमर सवे आवीनिमल्या, मान सहित गाढा झलहल्या,
राज करिइ राय सरि सूर, भणइ गणि ते घर उछव धार । संवत १५ पंचोतेर नाम, पाटणनयर मनोहर ठाम ।
भीम कवि रचीउ रास, भणिइ भणावइ पूरि आस ।' इससे १६वीं शताब्दी का कवि सिद्ध होता है किन्तु देसाई इन प्रतियों को प्रामाणिक नहीं समझते और उन्होंने भीम की गणना ५५वीं शताब्दी के अन्तर्गत की है। अतः यहाँ १५वीं शती के मरुगुर्जर कवियों के साथ भीम और उनकी रचना सदयवत्स प्रबन्ध का विवरण प्रस्तुत किया गया है। रचना पाटण में होने के कारण इस पर गुर्जर का प्रभाव अवश्य मरु की तुलना में अधिक है।
भैरइदास-आप की प्राप्त रचना का नाम 'जिनभद्रसूरि गीतम' केवल दो गाथा की छोटी रचना है। यह १५वीं शताब्दी की रचना है। इसकी भाषा जैसा आगे दिए गये उद्धरणों से स्पष्ट मालूम होगा हिन्दी के अधिक समीप है किन्तु पुरानी हिन्दी, पुरानी गुजराती आदि के लिए एक सामूहिक नाम मरुगुर्जर दिया गया है अतः इसे भी मरुगुर्जर की ही रचना कहा जायेगा। उदाहरणार्थ इसके आदि और अन्त के छन्द उद्धृत किए जा रहे हैं :आदि 'मनमथ दहन मलिनि मन जित, तप तेज दिनकरु ए।
महिम उदधि गुरु या गच्छ गणधरा सकल कलानिधिए । वादि तरकि विद्या गज केसरि, जोग जुगति यति संपुन्नु,
आप वसिकरणि सुखनिधि, संघ सभापति मडणु। १ ।' अन्तिम पद्य इस प्रकार है :
'चतुर्दिश प्रगट अमृत रस पूरित, ज्ञानि गे रेखग । पंच महाव्रत मेरु धुरंधर, संजम सुगृहितुं ए। जिनराज सूरि पाट ससि सोभत भणति भैरइ दासु मणहरुमा।
जिणभद्र सूरि सुगुरु गुणवदउ, मन वंछित फल पामउए।1 इसका विषय शीर्षक से स्वतः स्पष्ट है। इसमें कवि ने अपने गुरु जिनभद्र सूरि का वदन किया है । भाषा अति सरल बोलचाल की पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर है। १. श्री अ० च० नाहटा, म० गु० जै० पृ० ८५-८६
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