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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
ऊलट रस अक मनि, अक चित्ति करि भावसुन्दर, जिम नासइ असुह सिवि संपयंति सुबह परंपरि ।
तां नितु नवी परि नितु चडावइ, अधिक यान विहारयं,
श्री संघ सहितु मणि तवनउ, स जयति श्री वीर जिणिंद ओ। इनमें कवि या कविता सम्बन्धी कोई विशेष विवरण नहीं है ।
भीम-श्री मोहनलाल द० देसाई ने इन्हें जनेतर कवि बताया है किन्तु इनकी रचना 'सदयवत्स प्रबन्ध' की कथा जैन-धर्म से सम्बन्धित है। श्री चीमनलाल दलाल ने अपने लेख 'सदयवत्स सावलिंगानी कथा1 में इसका उल्लेख किया है। इसकी भाषा को श्री देसाई ने जुनी गुजराती कहा है किन्तु वस्तुतः यह मरुगुर्जर भाषा की ही रचना है। अतः इसका विवरण यहाँ उचित है। इसका रचनाकाल १५वीं शताब्दी निश्चित किया गया है । ६८९ छन्दों का यह एक विस्तृत प्रबन्धकाव्य है। इसमें गाहा, पद्धड़ी, वस्तु, दूहा, चौपइ, अडिल्ल, मडलय, षट्पदी राग, धुल, धन्यासी इत्यादि प्राचीन छन्द और राग प्रयुक्त हुए हैं। कवि ने इसकी रचना नवरसों में की है, देखिये ५वाँ छन्द :
'सिंगार हास्य, करुणारी वीरो भयाण वीभत्सो, अदभत्त
सांत नवे रस जस वन्निस सदइ वच्छस्स ।५।' इसमें मालव देश की उज्जैन नगरी के राजा पुहरवच्छ के राजकुमार सूदइ कुमार की कीति का वर्णन किया गया है। सूदइ कुमार या सदयवत्स की कथा जैन जगत् की जानी पहिचानी कथा है। इसमें कवि भीम ने उसका गुण वर्णित किया है यथा,
'कवि भीम तासु गुण वन्नवइ, जो हरसिद्धी लवधवर ।' इसमें यथावसर सभी रसों का विभिन्न परिस्थितियों में वर्णन किया गया है। इसकी कुछ प्रतियों के अन्त में रचना का विवरण अनुपलब्ध है पर एकाध में यह विवरण मिलता है यथा, १. जैन साहित्य संशोधक खंड १ अंक ३ पृ० १३५ २. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग ३ खंड २५० २११०-१२ तक
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