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२५८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस समय तक रास का आकार बढ़कर प्रबन्ध काव्य जैसा हो चुका था। इस रास में मृगांकलेखा के सतीत्व का महत्व वर्णित है। रचना काव्यमय है। इनकी दूसरी रचना 'नवपल्लव पार्श्वनाथ कलश' है। इसमें सौराष्ट्रान्तर्गत मंगलपुर स्थित पार्श्वनाथ की स्तुति है। आदि और अन्त इस प्रकार हैआदि 'श्री सौराष्ट्र देशमध्ये श्री मंगलपुर मंडणो दुरित विहंडणो।
अनाथनाथ असरण सरण त्रिभुवन जनमन रंजनो। २३मो तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तेह तणो कलश कही।
भाषा पर गुर्जर का प्रभाव अधिक प्रतीत होता है। इसका अन्तिम पद्य देखिये :
'इमि भणे वच्छ भंडारी निजदिन अम मन से अरिहंत, अहवा नीलवरण नवरंग जिनेसर, जयो जयो जयवंत ।'
इनकी तीसरी रचना की अन्तिम पंक्तियाँ पहले ही उद्ध त की जा चुकी हैं। उसका प्रारम्भ इस प्रकार है :
आदि राग सामवेदी'जिण चउवीसं आराहिसिउ ए, अम्हि आदि जिणेसर गाइसिउं ए। कवि जणणी अम्ह मुखि वसइ ए, तु बुद्धि प्रकाश मनि उल्हसइए।'
इसकी हस्तलिखित प्रति भी सं० १५४५ की लिखी हुई है और इसका रचनाकाल सं० १४७१ है तो इसी प्रकार सं० १५४४ की लिखी मगांकलेखारास का भी रचनाकाल सं० १४७१ के आसपास ही होगा। ये तीनों रचनायें वच्छ भंडारी की ही हैं। आप श्रावक कवियों में महत्वपूर्ण कवि हैं।
भावसुन्दर-आप तपागच्छीय सोमसुन्दर सूरि के शिष्य थे। आपने १५वीं शताब्दी में किसी समय 'महावीर स्तवन' लिखा जिसके आदि, अन्त की पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही हैं :आदि 'पणमवि सरसय माय पाय नितु बे कर जोडिय ।
श्री सोमसुन्दर सूरि राओ नितु समरवि नाम, जंगम तीरथ सकल मणि बिय बोहस डांण । पंच महावय धरणधार धुरि पंचाचारो, पंचेन्द्रिय वसिकरण
मयणजीतउ सपरिवारो।' १. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क. भाग १ पृ० ६३ २. वही पृ० ३३-३४
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