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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२५७ १६वीं शताब्दी के कवि थे अतः यह कवि भी १६वीं शताब्दी का होगा।' किन्तु यह कथन अधिक प्रामाणिक नहीं लगता क्योंकि आदिनाथ धवल में रचनाकाल स्वयं कवि ने दिया है । उससे वह १५वीं शती का कवि ठहरता है, पंक्तियाँ देखिये
'वच्छ भंडारी इम भणइ आदिस र अवधारि । अत्तकालि आडउ थइ, अम्ह निरया गइ निवारि। विद्या संक्षि एकहत्तरइ, धुरि कहउ काति मास एक धउल तिहां भणउ, कहितां पुण्य प्रकाश ।” इसमें रचनाकाल सं० १४७१ कार्तिक मास बताया गया है। अतः एक कवि की एक रचना १५वीं शती में और दूसरी १६वीं में हो; यह उचित नहीं लगता । दीर्घायु कवि १५वीं के अन्तिम चरण से १६वीं के प्रथम चरण में भी सृजनशील रह सकता है लेकिन श्री देसाई जी ने रचनाकाल नहीं दिया है अतः इनका विवरण १५वीं शताब्दी में ही समीचीन लगता है। इनकी तीसरी रचना 'मृगांकलेखारास' की प्रति सं० १५४४ से पूर्व की प्राप्त है अतः यह रचना १५वीं शती के अन्तिम चरण की हो सकती है। इनकी तीनों रचनाओं से भाषा के नमूने प्रस्तुत किए जा रहे है जिनका मिलान करने से भी तीनों रचनायें एक ही कवि की मालम पड़ती हैं। सर्वप्रथम मगांकलेखारास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये :
'गोयम गणहर पय नमेवि, बहु बुद्धि लहेसु मृगांक लेखा सतीय चरिय मनि सुद्धि कहेसु, सीलइ सरोमणि गणि निलो मनि मांन न आणइ ।
मनसा वाचा कायकरी ते सील बखाणइ ।' इसका अन्तिम पद्य देखिये :'मृगांक लेखा तणूयं चरित्र, समकित सतरी मांहि पवित्र, तेहथू कविउं सत्त आधारि, असत्य ते भिद्दादुकड़ सार ।४०२।'
यह ४०४ कड़ी की लम्बी रचना है किन्तु इस में रचनाकाल और कवि सम्बन्धी विवरण अनुपलब्ध है । कवि ने इसे स्वयम् प्रबन्ध काव्य कहा है। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ १० ६५ और भाग ३ पृ० ५०० २. श्री अ० १० नाहटा-म० गु० ज० कवि प० ८१ ३. श्री मो० ८० देसाई-जै० गु० क. भाग १ पृ० ६३
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