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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य २५५ नाथ की मूर्ति को प्रशस्ति में यह फागु लिखा गया है। इसके प्रारम्भ में कवि ने वसंत की बनश्री का मनोहर वर्णन किया है । मन्दिर में पूजन का प्रभावशाली वर्णन इस फागु की १६ कड़ियों में किया गया है। इसमें चार भास हैं और प्रत्येक भास दूहा और रोला में पद्यबद्ध है । वसंत में प्राकृतिक शोभा का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है 'अह दक्षिणु बाइउ वाउराउ रितु तणउ पहूतउ, दिसि दिसि हरसि रमंत, लोउ मनमथ गुणि गृहउ ।' ऐसे मनोरम समय में पार्श्वनाथ की पूजा का प्रारम्भ होता है । पूजा के लिए अपेक्षित शान्त वातावरण की अपेक्षा प्रकृति के उद्दीपक मादकता का अधिक प्रभावकारी वर्णन कवि ने किया है। पूजा-आरती के साथ फागु समाप्त होता है । फागु की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं 'वादिय जयसिंहसूरि पट्टह सिणगारो, : प्रसन्नचन्द सुणि इम भावि पभणइ गणहारो | १६ | 2 पृथ्वीचन्द - आप इन्द्रपल्लिय गच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १४२६ के आसपास 'मातृका प्रथमाक्षर दोहक' की रचना I ५८ गाथाओं में की है । इसके आदि के दो छंद आगे प्रस्तुत हैं :'अप्पई अप्पऊ बूझि करि जे परप्पइ लीणु सुज्जिदेव अम्ह हरसण, भवसायर पारीण । माई अयर धुरि धरिविं वर दूहय छंदेण, रस विलास आरभियउ सुकवि पुहवीचंदेण |२| इसके अन्तिम दो छंद भाषा के नमूने और रचना सम्बन्धी विवरण की दृष्टि से उद्धरणीय हैं, यथा रुद्द पल्हि गच्छत् तिलय, अभयसूरि सीसेण रस विलासु निप्पाइयउ, पाइय कव्वरसेण । ५३ । पुहविचंद कवि निम्मविय पढ़िहा चउपन्न, तसु अणसारिहिं ववहरहिं पसरइ कित्तिखन्न । ५४| 2 1 पहुराज - आप खरतरगच्छीय जिनोदयसूरि के श्रावक भक्त थे । आपने सं० १४१५ से १४३१ के बीच किसी समय जिनोदय सूरि गुण वर्णन १. प्राचीन फागु संग्रह पृ० २४ २. श्री मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४-७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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