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२५४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रथम कृति की अन्तिम दो पंक्तियां पहले प्रस्तुत हैं :'इय बह विह भत्तिहिं विहि सम्मतिहिं, आराधउ जिणवर सयल । श्री परमाणंद सूरि देसण मणिधरि, सावय कुल कीजइ सफल ।'
दूसरी रचना का प्रथम छंद निम्नांकित है“सयल सुहकारणो भविय जण तारणो, नाम गहणेण दुह दुरिय निलारणो । नयरि नायउरि जसु अधिक महिमा गुणो, जयउ श्री पासु चउवीस वट्टय
जिणो।' तीसरी रचना की अन्तिम दो पंक्तियां इस प्रकार हैं :
'आराधउं अरिहंत पदमाणंद सुरि इम भणए ।
ते रिधि वृद्धि जयवंत, जे प्रणमइ जिण प्रहसम ए। इन तीनों रचनाओं की विषय वस्तु और भाषा प्रायः एक जैसी है । स्तोत्र, स्तुति, स्तवन आदि भक्ति विषयक रचनाओं में कवि की तल्लीनता उसके काव्य पक्ष की अपेक्षा अधिक ध्यातव्य होती है।
परमानन्द-आपकी एक रचना 'शत्रुजय चैत्य परिपाटी' (गा० ४१) का उल्लेख श्री नाहटा जी ने किया है किन्तु कवि के नाम के आगे प्रश्नचिह्न लगा दिया है। रचना के अन्त में कवि का नाम इस प्रकार है :--- ___ 'सेज गिरिवर सियं धणीय नरेसूया, ऊगिउ अभिनव चंद,
सूरति परमानंद दिय नरेसूया, टालइ सवेवि छिंद ।४०।'
यह शब्द कवि का नाम भी हो सकता है और 'आनन्द' अर्थ का बोधक भी हो सकता है। इसका प्रथम छंद इस प्रकार है :
'सरसति सामिणि नमिय पाय, सिरि सेमिय केरी।
चैतु प्रवाडिहि (क)रि विहेव, मनि रंगि नवेरी।' अन्तिम छन्द भाषा के नमूने के लिए उद्धत किया जा रहा है :
'रिद्धि वद्धि कल्याण करी नरेसया, बोले चैत्य प्रवाडि एह । तीरथ यात्रा फल दियए नरेसूया, निरमल करय सुदेह ।'
प्रसन्नचन्द्र -आप जयसिंहसूरि के शिष्य थे । आपकी रचना 'रावणि पार्श्वनाथ फागू' प्राचीन फागू संग्रह में प्रकाशित है। इसका रचना काल सं० १४२२ है । रावणि अल्वर के पास एक गाँव है। वहाँ स्थापित पाव. १. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० जैन कवि पृ० ९९-१०० २. वही प. १०२
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