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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ६५ कड़ी की यह फागु अलग-अलग प्राचीन छन्दों में सुन्दर काव्य का उत्तम नमूना है। इसकी भाषा पर संस्कृत का प्रभाव अवश्य है किन्तु मूल ढाँचा मरुगुर्जर का ही है । संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग से यह भाषा काव्योचित बन गई है। इसमें स्थान-स्थान पर काव्य-सौन्दर्य युक्त सरस स्थल मिलते हैं जिनके कारण यह सामान्य रचना भी काव्यत्व की दृष्टि से उल्लेखनीय हो गई है।
देवसुन्दर--आप चन्द्रगच्छीय श्री सोमतिलक के शिष्य थे । आपने १५ वीं शताब्दी में 'उत्तम ऋषि संघस्मरण चतुष्पदी' नामक चौपई लिखा है जिसकी काव्यभाषा प्राचीन गुर्जर ( मरुगुर्जर ) है । इसमें तीर्थंकर, गणधर
और अन्य साधु यतियों का सादर स्मरण-वन्दन किया गया है । संभवतः इन्हीं देवसुन्दर सूरि के किसी शिष्य ने 'काकबन्धि' नामक काव्य लिखा है।
देवसुन्दर सूरि शिष्य--संभवतः कुल मंडन सूरि' ने 'काकबंधि' चौ० सं० १४५० के अन्तर्गत लिखा । कुलमंडन सूरि तपागच्छीय देवसुंदर सूरि के शिष्य थे और सं० १४५० के आसपास इन्होंने 'मुग्धावबोध औक्तिक' संस्कृत में लिखा था । यदि इन्हीं ने वह 'कक्क' भी लिखा हो तो वह रचना भी इसी के आसपास अर्थात् सं० १४५० के आसपास की होगी। ____एक 'देवसुन्दर रास' चॉप कवि ने भी लिखा है जिसका विवरण पीछे दिया जा चुका है। वे सम्भवतः भट्टारक चैत्यवासी थे । धम्मकक्क या कार्कवंधि अभी अप्रकाशित रचना है । अतः इसका विवरण और उद्धरण नहीं प्राप्त हो सका।
धनप्रभ--आपने 'श्री नेमिनाथ झीलणा' नामक लोकगीत लिखा है। इसकी भाषा सरल और लय मधुर है। यह मंगलोत्सवों पर गाया जाने वाला गीत है । शुभ अवसरों पर महिलायें लोकगीत गाती हैं। इसके प्रारंभ का छंद देखिए :--
'राजलदे वरदेव देवर, रूपिणि गाइसो झीलणूए। ऊलटी मन हेय यादव जिण गुणि, लागु छइ रह कहउ ए । वउलसिरि वरमाल पहिरणि, करणीय फूलडे गुथीऊं मे
सिव दिवि सुत सुकुमाल सुललित, सेवबड़े सइरू सिणगारीउए।" इस गीत के अन्तिम दो छंद निम्नलिखित हैं :-- १. श्री अ० च० नाहटा 'परम्परा' पृ० १८१ और श्री मो० द० देसाई जै० गु०
० भाग ३ प० ४२५
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