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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२४९ "निम्मल निज कुल कमल दिवाकर, सायर सम गम्भीर रे । अनुदिन नव नव माइ मनोरथ, रथवर सारथि धीर रे । सहसि मनोहर शशिकर निरमल, कमल सुकोमल पाणि रे। गज गति लीला मंथर चालइ, बोलइ सुललित वाणि रे ।"
इस रास से भी देवरत्न सूरि के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं जैसे श्री देवरत्न सूरि पाटणवासी बहोरा करणिज और उनकी पत्नी कतिकदे के सुपुत्र थे । आपका जन्म नाम जावड़ था । इन्होंने सं० १४६६ में दीक्षा ली। इनके गुरु श्री जयानन्द सूरि थे। रास में कहा गया है कि दीक्षोपरान्त इनके कठोर संयम व्रत को तोड़ने के लिए मदन ने वसंत को भेजा । इसी संदर्भ में कवि ने वसंत का मनोरम वर्णन किया है, यथा--
"फूलभरि लहकार लहकइ, टहकइ कोयल वृन्द ।
पारिध पाडल महिमह्या गहिगहि या मुचकुंद।" रमणियाँ वसंत ऋतु में नवीन परिधान धारण करके नाचती गाती हैं
"बनि बनि गायन गायई, वासइ मलय समीर ।
हंसिमसि नाचइ रमणीय, रमणीय नव नवचीर ।"] इस प्रकार कामदेव ने देवरत्न सूरि को संयम से डिगाने का अनेक प्रयत्न किया किन्तु आप अविचलित रहे । ये उच्चकोटि के संत थे और समय आने पर श्री जयानन्द सूरि के पट्ट पर प्रतिष्ठित हए। आपने लोकमंगल का महान् कार्य किया। इस फाग का अन्तिम छन्द इस प्रकार है :
"संवत् च उद नवाणं वरिसइ, ऋतु वसंत जन महनइ दिवसइ मन रंगिहिं सुविशाल; फागबंधी अ गुरु वीनती भाव भगति, मोलिम संजुती कीधी रास चउशाल । गणहर श्री देवरत्न सूरि सर इमी विनती करी, जे नरवर वंदइ भगतिहिं सार। तिह धरि विलसइ नवनिधि अहनिशि,
सवि सुहसंपद नितु हुइतीह वसि वंछिय सिद्धि अपार । १. ऐ० जै० गु० का० संचय पृ० १५४
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