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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्पद होने के कारण उसका उल्लेख मात्र कर दिया गया है । अधिक विवरण अपेक्षित नहीं समझा गया है।
देवदत-(बहरा ऊदा सूत ) आपकी रचना का नाम है 'श्री जिनभद्र सूरि धुवड' यह १५ वीं शती की रचना है। इसका आदि-अन्त आगे उद्धृत किया जा रहा है :-- आदि "सिसिगच्छ मंडण मयण रिण खंडण धीणग नंदनए ।
मिलि सुद्दरसण अमृत वरिसणु, वाणी सुललितु ए। अन्त "जिनराज सूरि पाट चिंतामण भद्द सूरि गुरु सुहकरुए ।
भणे देवदत्त बहरा ऊदा सृत सहि छाहड़ सुहकरण को।"1 इसमें शायद कुल दो गाथायें ही प्राप्त हैं। इसकी प्रति अभय जै० ग्रन्थालय में उपलब्ध हुई । इसकी भाषा सरल मरुगुर्जर है ।
देवभ गणि-आप सम्भवतः हर्षपुरीयगच्छ के आ० यशोभद्र के शिष्य थे। आपने १५ वीं शताब्दी में 'कुमारपाल रास' ( ४३ पद्य ) की रचना की है जो भारतीय विद्यामन्दिर पत्रिका में प्रकाशित है।
देवरत्म सूरि शिष्य ( अज्ञात ) कवि ने अपने गुरु के जीवनचरित पर आधारित 'देवरत्न सूरि फागु' सं० १४९९ में लिखा । यह फागु ऐ० ० ग० काव्य संचय में प्रकाशित है। इसका लेखक संस्कृत का विद्वान् मालम पड़ता है क्योंकि फाग का प्रारम्भ संस्कृत में लिखित मंगलाचरण द्वारा किया गया है। फाग के बीच-बीच में भी संस्कृत के सुन्दर छन्द हैं । भाषा में भी तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण लय और छन्दप्रवाह मनोहर बन पड़ा है। तत्सम शब्दों की योजना निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है, यथा--
"त्रिभुवन गगन विमासन दिणयर नयर जीरावलि वास रे । नमिन निरंजन भवभय भंजन, सज्जन रंजन पास रे ।'
छन्द में गति और लय की सुन्दरता के दृष्टान्त स्वरूप निम्नाङ्कित पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं :
१. श्रा अ० च० नाहटा - म० गु० जै० क० पृष्ठ ८५ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृष्ठ १८१ ३. ऐ० जे० गु० का० संचय पृ० १५१
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