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२४६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
जिनोदय सूरि-आप गुजरात में पालनपुरनिवासी श्री इन्द्रपाल की पत्नी धारण देवी की कुक्षि से सं० १३७५ में पैदा हुए थे । आपका जन्म नाम समर था। सं० १३८२ में जिनकुशल सूरि ने आपको दीक्षा दी और नाम सोमप्रभ रखा। सं० १४१५ में जब आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तो आपका नाम जिनोदय सूरि पड़ा। आपको सं० १४९६ में वाचनाचार्य की पदवी जैसलमेर में बड़े धूमधाम से दी गई की और आचार्य पद-प्रतिष्ठा समारोह खम्भात में तरुणप्रभ सूरि के आचार्यत्व में सम्पन्न हआ था। आपकी रचना 'त्रिविक्रमरास' का श्री मो० द० देसाई ने उल्लेख तो किया है किन्तु इसका विवरण, उद्धरण कुछ भी नहीं दिया है। - डूंगरु-आपकी रचना 'ओलभंडा बारहमासा' ( गाथा २८) १५ वीं शताब्दी की कही जाती है। यह रचना प्रकाशित है। श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४९२ पर इसका विवरण दिया है किन्तु रचनाकाल सं० १५३५ के करीब बताया है। अतः श्री देसाई के अनुसार यह कवि १६ वीं शताब्दी का ठहरता है किन्तु श्री अ० च० नाहटा ने मरुगुर्जर जैन कवि में इन्हें १५ वीं शताब्दी में रखा है। अतः इस कवि का रचनाकाल अनिश्चित है। इसके बारहमासे का प्रारम्भ देखिये :
"तोरणि वालंभु आवीउ, जादव कुल केरउचंदु।।
पसूय देखि रहुवालीउ, विहिविसि हूउ विच्छंदु ॥१॥" रचना नेमिनाथ के प्रसिद्ध कथा-संदर्भ पर आधारित है और राजुल की विरह व्यथा का बारहमासे के रूप में वर्णन किया गया है । नेमि ने संयम स्वीकार किया, कवि कहता है :
"नयणां नेहु भरे गयउ सुनेमिकुमारु ।
रेवइया गिरिवरि सरि चडीउ लीधउसंयम भारु ।" इसका अन्तिम दो पद्य देखिये :
"राजुलि जीसिउं रायमइ, पहुतउ सिद्धि सिलाहं
डुगरु स्वामि गायतां, अफलां फलीइं ताहं ।" अन्त में दूसरा छन्द "नयणा नेह भरे..." वाला पुनः दुहराया गया है। इस प्रकार कुल छन्द संख्या २८ हो गई है। इसकी कथा में मार्मिकता है और भाषा सरल प्रवाहपूर्ण है। अतः पाठक का मन रमता अवश्य है। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० १७ २. श्री० अ० च० नाहटा मरु-गु० ज० कवि पृ० १०३-१०४
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