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मरु-गुर्जर जैन साहित्य प्रतिबोधित अनेक भव्य जीवसमाज अपश्चिम तीर्थाधिराज;
श्री वर्द्धमान स्वामि श्री संघ रहइ मंगलीकमाला करउ।" इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है :
"गुज्जर मालव मेदपाट मरहट्ट कलिंगिहिं सिंधु जलपथि कन्यकुब्जि कर्णादि सुभोटिहिं, हरभुज कोसल पमुह देस जसु कीत्ति अगज्जइ । जां दिणयर वरचंद मेरु पूहवीतलि छज्जइ।
तां वीरनाहजिणवर थिकउपंचासम वर पाटघर । सिरि गच्छ संघ परिवार सहित, सोमसुन्दर गुरु जयउ चिरु ।"
ऐसी रचनाओं से साहित्यिक स्थलों की अपेक्षा नहीं रहती किन्तु इनका गच्छ सम्बन्धी इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान होता है।
जिनशेखर -आप जिन तिलक सूरि के शिष्य थे। आपने १५ वीं शताब्दी में किसी समय 'चतुर्विंशति नमस्कार' नामक २४ छंदों की एक छोटी रचना की। इसके आदि और अन्त के छन्द भाषा के उदाहरणस्वरूप आगे प्रस्तुत किए जा रहे हैं :आदि "तिहअण-मंडण विमल नाहिकुल-कमल दिवायर ।
आयर पर सुरनर वरिंद, वंदिय गुणसायर । अयसइ सयल निवास आस पूरिय परमेसर । पंच धणुस्सय देह माणव सहकजिणेसर । सिरि मरुअवा अंगरुह, सोवन वन्न सरीर ।
अदीसरवियहं जयउ, गरुउ गणिगंभीर।" इसका अन्तिम पच्चीसवाँ छन्द निम्नाङ्कित है :
"चउविह सिरि संघह थउ गुण-रयणायर वृन्द
वद्धमाण तित्थेसधर, चउवीसमउ जिणंद ।"" इससे पूर्व लेखक का नाम आया है, यथा
"सिंह सुलंछण सत्तहत्थ तण गौर मणोहर,
सिरि जिणतिलय सूरीस सीसपभणइ सिरि सेहर ॥२४॥" भाषा सरल मरुगुर्जर है । इसमें २४ तीर्थंकरों की वंदना की गई है।
१. श्री मो० द० देसाई -जै० गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४८४ २. श्री मो० द० देसाई-जै• गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४८४-८५
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