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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सो देव सामिय सुगुरु सिरि जिणभद्र सूरिहि सेविउ । यहबोधि दायक हवउ संघइ सिवसिरी सुह संथिउ ।' जिनरत्न सूरि-खरतर गच्छीय प्रसिद्ध आचार्य जिनरत्न सूरि १४ वीं शताब्दी में हो गये किन्तु आपकी रचनायें-'अर्बुदालंकार श्री युगादिदेव स्त०' और 'नेमिनाथ स्त०' का समय सं० १४३० के आसपास बताया जाता है अतः ये अवश्य कोई दूसरे जिनरत्न सूरि होंगे । तपागच्छीय जिनशेखर सूरि के शिष्य जिनरत्नसूरि इन रचनाओं के लेखक हो सकते हैं क्योंकि उनका समय वि० सं० १४३० या १४४० के आसपास ठहरता है। इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १४३० की लिखी श्री नाहटा जी के संग्रह में सुरक्षित है अतः और पहले की रचना भी हो सकती है। ये दोनों स्तवन' हैं अतः विषय तो स्पष्ट ही है। __जिनवद्धन सूरि-आपको आचार्य पद सं० १४६१ में मिला था। अतः आपने पूर्वदेशतीर्थमाला (गा०३२) इसी के आसपास लिखी होगी। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये :
"हियय सरोवरे धरिय गुरुराय, सूरि जिणराय पयारविंद । विणय बहुमाणहि पुव्ववर देसि, संठिया थुणउ तित्थाणबंद ॥१॥" पहिलउं सच्चउर नयरि पणमेवि, वीरजिणेसर कप्परुक्ख । तयणु सिरि रयणपुरि संति तित्थंकर, वंदउ नासिया सयल दुख ॥२॥ इसकी अन्तिम पंक्तियाँ भी भाषा के नमूने के रूप में प्रस्तुत हैं :--
"इम्म जम्मठाणइ सिरि निहाणइ गाम नयरहि संसिया । सिरि सकल जिणवर घण गुणालय लक्खराय नमसिया ॥ जिण बिंब सग्गि पयालि महीयलि, जे असासय सासया,
ते नमउँ पूयउथुणउ भत्तिहिं, सिद्धिमग्ग पभासया ॥३२॥" जिनवद्धमान सूरि- आपकी रचना 'तपोगच्छ गुर्वावली' सं० १४८२ से पूर्व लिखी गई। यह प्राच्य भारती विद्याभवन की त्रैमासिकी के प्रथम अंक में प्रकाशित है। यह गच्छ के गुरुओं की क्रमवार सूचना प्राप्त करने की दृष्टि से पठनीय है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये----
वितरतु मंगलमाला समस्त संघस्य वर्द्धमान जिन, यत्पट सेवा संप्रति, कल्पलता भीष्ट फलदाने ।
१. श्री मो० द० देसाई-० गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४७८ २. श्री अ० च० नाहटा-म० गु० ज० कवि पृ० ८२
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