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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
" बनि वनि कुसुमहि विहसइ वनसइ भृंग भ्रमंति । पेषिति विरहिणि चंपय संपय कंप करंति ॥ "
इसमें भी भ्रमरों की उपमा भाटों से दी गई है जो तत्कालीन दरबारी प्रभाव का द्योतक है, यथा-
"फिरिफिरि वनि वनि मधुकर निकर करई झंकारु । जीतउ जगु करि अमरसु समरसु किरि जयकारु ॥ १० ॥ | ""
इसी वसन्त में नेमिकुमार के विवाह का निश्चय और राजुल की रूपशोभा का परंपरित ढंग से नखशिख वर्णन आदि किया गया है । प्रायः वे ही उपमायें यहाँ भी मिलती हैं जिन्हें हम प्रथम फागु में देख चुके हैं, यथा :--
" गजपति करवर पीवर उरुय हरिणी जंघ, कमल सुकोमल नवदल पददल गुणिहि अलंघ ।”
इसके पश्चात् विवाहोत्सव के वर्णन के अन्तर्गत बारात का प्रस्थान और दोनों पक्षों का साजशृंगार वर्णन करने के बाद बलिपशुओं को देखकर नेमिनाथ के विरक्त होने की घटना का वर्णन पूर्ववत् किया गया है किन्तु इसमें राजुल का विलाप ज्यादा मार्मिक है । नेमि अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हैं । वे दीक्षा लेते हैं और तप द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
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"केवल नाणिहि वणिहि देदिउ संसय कंदु,
सीधउ सिवपुर गामिउ सामिउ नेमि जिणंदु | कीन्हउ कन्हमुनीसर गणहर जयसिंह सूरि, फागु सुणतह पापु पणास दूरि ॥ "" आप एक प्रतिभाशाली आचार्य और उत्तम रचनाकार थे । जैन साहित्य की लोकप्रिय कथा - नेमिकुमार पर आधारित इनके दोनों फागु साहित्य की उत्तम कृतियाँ हैं । इनके शिष्य प्रसन्नचन्द्र के शिष्य नयचन्द्र सूरि ने प्रसिद्ध राणा हम्मीर पर महाकाव्य लिखा था । आपके शिष्य-प्रशिष्यों की लम्बी और समृद्ध परम्परा मिलती है ।
जयानन्द सूरि - आपका आचार्य काल सं० १४२० से १४४९ तक था । "
१. प्राचीन फागु संग्रह पृ० १८
२. प्राचीन फागु संग्रह पृ० २१
३. श्री मो० द० देसाई - जैन साहित्य नो इतिहास पृ० ४४३
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