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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२४५ एक दिन जलक्रीड़ा के समय कृष्ण की रानियों ने इनसे विवाह का प्रसंग चलाया और विवाह के लिए तैयार किया। इनका विवाह राजीमती से निश्चित हो गया। राजीमती की रूपशोभा का वर्णन कवि करता है, यथा--
"दप्पण निम्मल तसु कपोल नासा तिलफूला। हीरा जिम झलकंत दंत पंतिहि नहि मुल्ल । अहिरु प्रबालउ कंठु करइ कोइल सइ वादो,
राजल वाणिय वेण वीण ऊतारइ नादो॥" यह रूप वर्णन प्रथम भास से प्रारम्भ होकर दूसरे भास में भी चलता रहता है। वह शरीर शोभा के साथ-साथ राजुल के स्वभाव-सौन्दर्य का भी सूक्ष्म चित्रण करता है। कवि कहता है :--
विनय विवेक विचारसील लीला सुविसाला,
रंभु तिलुत्तमु सरिस रुव सा राजल बाला। इधर माता ने पुत्र नेमिकूमार का शृंगार किया। विवाह के लिए बरात चली, दोनों ओर का मंगल उत्साह अवर्णनीय था, परन्तु बंधे पशुओं को देखकर उन्हें घोर वैराग्य हो गया और विवाह को गले का फंदा समझकर वे तपस्या के लिए रेवंतगिरि पर चले गये।
रनिवास में समाचार मिलते ही वहाँ कोहराम मच गया। राजुल झंझा से छिन्नवल्लरी के समान भूमि पर लोट-लोट कर विलाप करने लगी। आनन्दोत्सव का सम्पूर्ण दृश्य क्षणभर में घोर विषाद और करुणा में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार जैन मतानुसार रास का अन्त शान्त रस में हो गया । रास के अन्त में कवि ने लिखा है :--
"भविय जिणेसर भवण रंगि रितुराउ रमेणउ,
कन्हरिसि जयसिंह सूरि किउ फागु कहेवउ।" इस प्रकार यह प्रथम फागु काव्यत्व तथा कथाशिल्प की दृष्टि से एक उत्तम रचना बन पड़ी है। इसकी भाषा प्रसाद एवं माधुर्य गुण सम्पन्न, यत्रतत्र अलंकारों से विभूषित काव्योचित मरुगुर्जर है।
इनकी दूसरी कृति नेमिनाथ फागु द्वितीय (४९ कड़ी) की अपेक्षाकृत कुछ बड़ी रचना है। यह वसन्त वर्णन से प्रारम्भ होती है, वसन्त की शोभा का वर्णन कवि के शब्दों में देखिये :-- १. प्राचीन फागु संग्रह पृ० १२ से १६ तक ।
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