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मरु-गुर्जर जैन साहित्य किया है। यह कुल ७० पद्यों की रचना है। इसका अन्तिम ( ७० वाँ) पद्य निम्नाङ्कित है :
"जयसागर उवझाय तिम, इम जो सुहगुरु गुण अभिनन्दइ । रिद्धि समृद्धिहिं सो चिरुनन्दइ, मनवंछित फल तासु हवइए ॥७०॥"
इसकी भाषा में सहज प्रवाह, गेयता और ऋजुता होने के कारण यह भक्तों का कण्ठहार है। इसे सभी कंठस्थ करते और नित्यपारायण करते हैं। इसकी भाषा स्वाभाविक मरुगुर्जर है। इस पर अपभ्रंश का यत्किचित् प्रभाव भी नहीं है । सम्भवतः जनता में इतनी लोकप्रिय होने के कारणों में एक इसकी लोकप्रिय भाषा शैली भी है। "दादा जिनकुशल सूरि" नामक पुस्तक के सम्पादक श्री अ० च० नाहटा के साथ श्री भंवरलाल नाहटा भी हैं। इनकी दूसरी महत्वपूर्ण रचना चैत्यपरिपाटी ( गाथा २१ ) सं० १४८७ की लिखी एक ऐतिहासिक रचना है। इसमें पाटण, रायपुर, महसाणा, शत्रुजय, पालिताणा, गिरनार, जूनागढ़ आदि के चैत्यों का उल्लेख है। इसके आदि की पंक्तियाँ देखिये :-- "मनोरंगि मई आपणइ बुद्धि पामी, ज जणऊफिरी वंदियइ भुवणसामी। ता आणंदि जे वंदिया भवसारं, वली ते जिणे वंदियो वारवारं ॥१॥" अन्त "इय दोसनासण पयड सासण सहुपयाषण केविया ।
बह ठाणसंठिय देवजिणवइ भावभत्तिहिं सेविया ॥ ते आज चहविअ संघ मंगल रंग दाण समग्गला ।
मह दिंतु निव्वुह सुजहूसागर बोधिलाल समुज्जला ॥२१॥" यह प्रकाशित रचना है।
'नगरकोट्ट महातीर्थ चैत्य परिपाटी' ( गा० १७ ) की प्रारम्भिक पंक्तियाँ नमूने के लिए प्रस्तुत हैं :--
मुझ मनि लागिय बँति जलंधर देसह भणिय ।
तीरथ वंदण रेसि, नगरकोट्टि तउ आवियउ ॥ 'वयरस्वामिगुरु रास' सं० १४८९ जूनागढ़ की अन्तिम पंक्तियाँ देखिये
"जूनइगढ़ि श्री नेमि पसाइ, श्री जयसागर वरकाय उवझाइ; (१४८९) चउद निव्यासी वछर हो, इमि गणहर सुविहाण थुणीजइ।
उच्छव मंगल रास रमीजइ, श्रेय शांति संपत्ति करो॥" अन्त में 'चतुर्विंशति जिन स्तुति' नामक लोक प्रचलित रचना के आदि और अन्त की पंक्तियाँ उद्ध त की जा रही हैं ताकि उनके स्फुट स्तवनादि का प्रतिनिधित्व हो जाय :--
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