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अन्त
मरु-गुर्जर जैन साहित्य 'नव जुवण भरि सील सबलु सोहागिहि सारो। मणवंछिय फल देउ देउ, सिवि देवि मल्हारो। सिरि महिंदप्पह सूरसीसि जयसे हरि कीजइ ।
फागू एउ भवियण वसन्त ऋतू रसिहिं रमीजइ।" रास में काम का लुभावना वर्णन है। वसन्त आया, काम त्रिभुवन जीतने चला, कवि लिखता है
"विहसिय रतिपति ऋतुपति तउ अवतरिउ वसन्त ।
भुवण पराजय संयुहु वम्मुह चरिउ हंसंतु ।' सभी वसन्तोत्सव में लीन हो जाते हैं किन्तु नेमि इससे अलग रहते हैं। उन पर न तो काम का और न ऋतुराज का कोई उद्दीपक प्रभाव पड़ता हैं; लेकिन कृष्ण की पत्नियों और माँ ने समझा-बुझाकर उन्हें राजुल से विवाह के लिए तैयार किया। इस अवसर पर कवि ने मौका पाकर राजुल के रूप का बड़ा मोहक वर्णन किया है यथा
"तिवलिय सुललिउ उपद देसु पुण नाहिं सलूणिय ।
देखिय विडल निय वंविबु शिरु कवणि म धणिउ ।' विवाह की तैयारी, बारात का प्रस्थान और नेमि की शोभायात्रा का वर्णन प्रभावकारी है। तोरण द्वार पर पहुँच कर वहाँ बँधे बलिपशुओं को देख कर नेमि को विरक्ति होती है और लोगों के लाख समझाने-मनाने के बावजूद वे रेवंत पर्वत पर जाकर तपस्या में लीन हो जाते हैं। इसप्रकार नेमि राजुल की इस बहुचर्चित कथा के आधार पर कवि जयशेखर ने यह मनोरम फागु लिखा है।
इनकी एक अन्य कृति भी नेमिनाथ पर ही आधारित है जिसका नाम है-'नेमिनाथ धवल ।' इसमें कुल १३ गाथायें हैं। इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैंआदि "द्वारिका घरि घरि मंगल चारु, समुद्रविजयनरवर तणऊ।
सिवदेवि माडि तणउ मल्हाइ, नेमिकुमर वर परिणीइ ।
उग्रसेन राय तणीय कुमारि, राजल रुपि रलीयामणी । अन्त राणी राजलि तणउ आनन्द कविजण केतलउं केवलई ।
जय जय जगगुरु नेमि जिणिंदु, जीणि तेउइ जइ पूरीउ ।" यह मंगल गीत एक प्रकार का लोकगीत होता है जो विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर गाया जाता है । इसकी भाषा भी साहित्य गुणसम्पन्न सरस मरुगुर्जर है।
१. प्राचीन फागु संग्रह पृ० २४४
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