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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मूलिमंत्र मणि मे मनि मानि, तप जपनउ फल एहज ध्यानि, इणि सविसंपद आवइ पूरि, इमि बोलइ जय शेहर सूरि ।४४७॥" त्रिभुवनदीपक अह प्रबन्ध, पापतणउ नांसर नर गंध
जा गयणांगणि ध्रुथिर थाइ, जां महियल दिणयर शशिराइ।४८। जैसा श्री देसाई का कथन है कि इसकी भाषा गुजराती है तो इससे मेरा यह कथन अधिक स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि जुनी गुजराती और पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर में केवल नाम भेद है, तत्त्वभेद नहीं है । इस काव्य की प्रशंसा में प्रसिद्ध विद्वान् केशवलाल ध्रुव ने कहा है कि इस काव्य के बन्ध की सरलता, वाणी का प्रसाद और कविता की गमक किसी अन्य रचना में सुगमता से नहीं मिलती। इसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । आप जुनी गुजराती या मरुगुर्जर के उच्चकोटि के लेखकों में अग्रगण्य हैं । इसके अतिरिक्त, जैसा पहले कहा जा चुका है आपने संस्कृत और प्राकृत में भी अनेकानेक बृहद् ग्रन्थ गद्य और पद्यबद्ध लिखे हैं ।
'नेमिनाथ फागु' नाम से आपकी दो रचनायें प्राप्त हैं । प्रथम फागु गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज में छप चुका है और दूसरी फागु प्राचीन फागुसंग्रह में संकलित अन्तिम रचना है। इसका रचना काल सं० १४६० के आसपास बताया गया है। प्रथम फागु के आदि अन्त की पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं :आदि "जिणि जगि जीत उ समरसि, अमर शिरोमणि कांमु ।
विलसइ सिद्ध सयंवर, संवर गुणि अभिरामु । निरुपम निपुण निरंजन, रंजन जन मन चारु ।
पामीय सुहगुरु आइसु, गाइसु नेमिकुमार । अन्त "निज यश दिसि दिसि व्यापओ, थापओ चउविह संघ ।
सूरउ तेहज सामिय ध्यामिय कामिय रंग । __ कवितु विनोदिहिं सिरिजय सिरिजयसेहर सूरि ।
जे खेलइ ते अर्वपद संपद पामइ पूरि । इसमें कुल ५८ कड़ियाँ हैं । रचना में लेखन काल उल्लिखित नहीं है।
द्वितीय 'नेमिनाथ फागु जो प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित है , ४९ कड़ी की रचना है। इसके आरम्भ की पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं :-- आदि "पणमिय सिवगति गामीय, सामीय सवि अरिहंत ।
सुरनर नाह, नमसिय, दंसिय सयल दुहंत । गाइसु मण अणुरागिहिं फागिहिं नेमिकुमार । जिणि जगि सयल विदीहउ, जीतउ भुजबलि मारु ।"
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