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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
२३५ जयशेखर सूरि - आप महेन्द्र सूरि के शिष्य थे । आपने त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध अथवा परमहंस प्रबन्ध, नेमिनाथ फाग, नेमिनाथ धवल, स्तवन, वीस विहरमान वीनती, अर्बुदाचल वीनती, शत्रुजय वीनती आदि लिखा है। आपकी रचना शीलसंधि संधिकाव्य की परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । संस्कृत में आपने 'अजित शान्तिस्तव' आदि लिखा है। आपने सं० १४६० के आसपास द्वितीय नेमिनाथ फागु ( ४९ गा० ) लिखा जो 'प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित है । आप मेरुतुंग सूरि के गुरुभाई और महेन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य थे। महेन्द्रप्रभ सूरि अञ्चलगच्छ के संस्थापक आचार्य आर्यरक्षित सूरि की परम्परा में सिंहतिलक सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १४३६ में नृसमुद्र नगर में उपदेश चिन्तामणि (१२००० श्लोक) नामक बृहद् ग्रंथ लिखा । सं० १४६२ में खंभात में आपने प्रबोधचिन्तामणि नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा, उसी पर आधारित मरुगुर्जर भाषा में त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध लिखा गया है । आपने संस्कृत में धम्मिल महाचरित महाकाव्य, जैनकुमारसंभव आदि ग्रंथ भी लिखे थे। त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध की भाषा को पुस्तक की प्रस्तावना में श्री लालचन्द पंडित ने जुनी गुजराती कहा है । इसकी तुलना में नरसी मेहता और मीराबाई की भाषा अर्वाचीन लगती है। इसी की भाषा को लक्ष्य करके प्रो० मणिलाल नमुभाई द्विवेदी ने कहा है कि गजराती भाषा को गजराती रूप देने वाले जैन लेखक ही हैं। इसमें अनेक प्रकार के छन्द जैसे दूहा, चौपई, छप्पय आदि, अनेक राग जैसे ध्रुपद, अकताली, गूजरी और देशी ढाल-वस्तु आदि का प्रयोग किया गया है। यह ४१८ कड़ी का एक विस्तृत प्रबन्ध काव्य है । भाषा और शैली के नमूने के तौर पर इसके आदि और अन्त की कुछ पंक्तियाँ आगे उद्धत की जा रही हैं - आदि “पहिलं परमेसर नमी, अविगतु अविचल चित्ति ।
समरिसु समरसि झीलती, हंसासणि सरसत्ति । मानस सरि जां निर्मलइ, करइ कुतूहल हंसु,
तां सरसति रंगि रहइ, जोसी जणइ डंसु ।२।2 इसका अन्तिम छन्द प्रस्तुत है : -
"कल्प कामधेनु अ होई, अ चिन्तामणि अवर न कोई।
अह जि शिवपुरीनउ पंथ, जीवन अहजि सविहुं ग्रन्थि । १. श्री मा० द० देसाई--जै० ग० क० भा० १ पृ० २४-२५
वही
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